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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

आफ्रिकामें बात इससे उलटी है। वहाँ सोच-विचारकर प्रकट किया गया लक्ष्य यह है कि भारतीयोंको सभ्यताके मानदण्डमें ऊपर न उठने दिया जाये। बल्कि उन्हें काफिरोंके स्तरतक गिरा दिया जाये। नेटालके महान्यायवादीके शब्दोंमें वह लक्ष्य "उन्हें हमेशाके लिए लकड़हारा और पनिहारा बनाकर रखना" है; उन्हें "भावी दक्षिण आफ्रिकी राष्ट्रका, जिसका निर्माण किया जानेवाला है, अंग नहीं बनने देना है"। नेटाल-विधानमण्डलके एक अन्य सदस्यके शब्दोंमें, "भारतीयोंका जीवन नेटालकी अपेक्षा उनके अपने ही देशमें अधिक आरामदेह बनाना है।" इस प्रकारके अधःपतनके विरूद्ध संघर्ष इतना ना विषम है कि हमारी सारी शक्ति विरोधमें ही खर्च हो रही है। फलतः अपने अन्दर सुधार करने के लिए हमारे पास बहुत कम शक्ति बचती है।

अब मैं राज्य-विशेषोंको लेकर आपको बताऊँ कि किस तरह विभिन्न राज्योंकी सरकारोंने "ब्रिटिश भारतीयोंका रहना असम्भव कर देने के लिए" जन-साधारणके साथ गठ-बन्धन कर रखा है। नेटाल एक विशाल स्वशासित ब्रिटिश उपनिवेश है। वहाँ मतदाताओं द्वारा निर्वाचित ३७ सदस्योंकी एक विधानसभा और गवर्नर द्वारा नामजद १२ सदस्योंकी एक विधानपरिषद है। गवर्नर सम्राज्ञीके प्रतिनिधिकी हैसियतसे इंग्लैंडसे आता है। यूरोपीयोंकी आबादी ५०,०००, देशी या जूलू लोगोंकी ४,००,००० और भारतीयोंकी ५१,००० है। भारतीयोंको लानेमें आर्थिक सहायता देनेका निश्चय १८६० में किया गया था, जबकि, नेटाल-विधानसभाके एक सदस्यके शब्दोंमें, "उपनिवेशकी उन्नति और लगभग उसका अस्तित्व ही डाँवाँडोल था" और जब जूलू लोगोंको काम करने में अति आलसी पाया गया था। अब नेटालके मुख्य उद्योग और सारे उपनिवेशकी सफाई पूरी तरह भारतीय मजदूरोंपर अवलम्बित है। भारतीयोंने नेटालको "दक्षिण आफ्रिकाका उद्यान" बना दिया है। एक अन्य प्रमुख नेटालीके शब्दोंमें, "भारतीयोंके आगमनसे समृद्धि आई, भाव बढ़ गये, लोग सस्ती चीजें पैदा करने या सस्ते भावपर बेचने से असंतुष्ट रहने लगे।" ५१,००० भारतीयोंमें से ३०,००० वे हैं, जिन्होंने अपने गिरमिटकी अवधि काट ली है और जो अब मजदूरों, बागबानों, फेरीवालों, फल बेचनेवालों या छोटे-छोटे दुकानदारोंके भिन्न-भिन्न धंधोंमें लगे हैं। कुछ लोगोंने, परिस्थितियोंके विपरीत होते हुए भी, अपनी मेहनतसे पढ़-लिखकर शिक्षक, दुभाषिये और मुंशी बनने की योग्यता प्राप्त कर ली है। १६,००० इस समय अपने गिरमिटकी अवधि काट रहे हैं और लगभग ५,००० दकानदार या व्यापारी या उनके सहायक हैं, जो पहले-पहल अपने खर्चसे वहाँ गये थे। ये लोग बम्बई-प्रान्तके रहने वाले हैं और इनमें अधिकतर मेमन मुसलमान हैं। कुछ पारसी लोग भी हैं। उनमें डर्बनके रुस्तमजी विशेष उल्लेखनीय हैं। उनकी उदारता तो सर दिनशाके[१] लिए भी सम्मानास्पद होगी। उनके दरवाजे से कोई गरीब दिलसे सन्तुष्ट हुए बिना नहीं लौटता; डर्बनमें उतरनेवाला कोई पारसी उनका आदर-सत्कार पाये बिना नहीं रहता। ऐसे ये सज्जन भी सताये जानेसे मुक्त नहीं हैं। ये भी

  1. यह उल्लेख सर दिनशा एम॰ पेटिटका है।