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भाषण : बम्बईकी सार्वजनिक सभामें

ही, नेटालसे सिर्फ ३०० मील दूर, अर्थात् डेलागोआ-बे में, बहुत अधिक पसन्द किया जाता है और उनका बहुत आदर किया जाता है। इस सब द्वेष-भावका सच्चा कारण दक्षिण आफ्रिकाके प्रमुख पत्र 'केप टाइम्स' के उस समयके शब्दोंमें, जबकि उसके सम्पादक दक्षिण आफ्रिकी पत्रकारोंके शिरोमणि श्री सेंट लेजर थे, यह है :

जिस चीजसे आजकल भारी शत्रुता पैदा होती जा रही है, वह है इन व्यापारियोंकी स्थिति। और इनकी स्थितिका खयाल करके ही इनके व्यापारी प्रतिस्पधियोंने, अपनी स्वार्थ-सिद्धिके लिए, सरकारके माध्यमसे, इन्हें वह दण्ड देनका प्रयत्न किया है, जो प्रत्यक्ष रूपमें बहुत ज्यादा अन्याय-जैसा दीखता है।

उसी पत्रमें आगे लिखा है :

भारतीयोंके प्रति अन्याय इतना स्पष्ट है कि जब केवल इन लोगोंकी व्यापारिक सफलताके कारण हमारे देशवासी इनके साथ देशी (अर्थात्, दक्षिण आफ्रिकाके) लोगों-जैसा व्यवहार करना चाहते हैं तो उनपर शर्म-सी आती है। भारतीयोंको उस मानहानिकर स्तरसे उन्नत कर देनेके लिए तो स्वयं यह कारण ही काफी है कि वे प्रबल जातिके विरुद्ध इतने सफल हुए हैं।

अगर यह १८८९ में सही था, जबकि यह लिखा गया था, तो आज दूना सही है, क्योंकि दक्षिण आफ्रिकाके विधानमंडलने सम्राज्ञीके भारतीय प्रजाजनोंकी स्वतन्त्रता पर प्रतिबंध लगानेवाले कानून पास करने में चतुर्मुखी प्रवृत्ति दिखाई है।

अपने प्रति विरोधके इस ज्वारको रोकने के लिए हमने छोटे-से पैमानेपर एक संस्था[१] बनाई है, ताकि हम अपने कष्टोंको दूर कराने के लिए आवश्यक कार्रवाई कर सकें। हमारा विश्वास है कि दुर्भावनाओंका एक बड़ा कारण भारतमें रहनेवाले भारतीयोंके विषयमें उचित ज्ञानका अभाव है। इसलिए, जहाँतक जन-साधारणका। सम्बन्ध है, हम आवश्यक जानकारी देकर लोकमतको शिक्षित करने का प्रयत्न करते हैं। कानूनी बाधा-निषेधोंके बारेमें हमने इंग्लैंडवासी अंग्रेजोंके लोकमतको और यहाँके लोकमतको, उसके सामने अपनी स्थिति पेश करके, प्रभावित करने का प्रयत्न किया है। जैसाकि आप जानते हैं, इंग्लैंडमें अनुदार और उदार दोनों दलोंने बिना भेदभावके हमारा समर्थन किया है। लन्दन 'टाइम्स' ने हमारे पक्षमें बहुत सहानुभूतिके साथ आठ अग्रलेख[२] प्रकाशित किये हैं। केवल इतनेसे ही हम दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीयोंकी नजरोंमें एक सीढ़ी ऊपर उठ गये हैं और वहाँके समाचार-पत्रोंकी ध्वनि बहुत-कुछ बदल गई है।

अपनी मांगोंके बारेमें मैं स्थितिको थोड़ा और स्पष्ट कर दूँ। हम जानते हैं। कि जन-साधारणके हाथों हमें जो अपमान और तिरस्कार सहना पड़ता है, वह ब्रिटिश सरकारके सीधे हस्तक्षेपसे दूर नहीं हो सकता। हम उससे ऐसे किसी हस्तक्षेपका

  1. नेटाल भारतीय कांग्रेस।
  2. देखिए पृ॰ ५२।