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भाषण : मद्रासकी सभामें


हम "दिलसे कोसी जाने लायक एशियाई गन्दगी" हैं; हम "गलेतक दुर्गुणोंसे भरे हुए" हैं और हम "चावल खाकर जीते" हैं; हम "गंधैले कुली" हैं, जो "तिलहे चिथड़ोंकी दुर्गन्धपर जिन्दगी बसर करते हैं,"; हम "काले कीड़े" हैं; कानून की पुस्तकमें हमें "अर्धबर्बर एशियाई या एशियाकी असभ्य जातियोंके लोग" बताया गया है। हम "खरहोंके समान बच्चे पैदा करते हैं" और हालमें डर्बनकी एक सभामें एक सज्जनन कहा था—"मुझे अफसोस है कि इन्हें खरहोंके समान गोलीस मारा नहीं जा सकता।" ट्रान्सवालमें कुछ स्थानोंके बीच घोड़ागाड़ियाँ चलती है। हम उनके अन्दर नहीं बैठ सकते। इसमें अपमान और अपमानका मंशा तो है ही; इसके अलावा, शीतकालके भयानक प्रभातमें—क्योंकि ट्रान्सवालमें बड़ी कड़ी सर्दी पड़ती है—या झुलसा देनेवाली धूपमें, हालाँकि हम भारतीय है, गाड़ियोंकी छतपर बैठना एक घोर परीक्षा है। होटलोंमें हमें जगह नहीं दी जाती। और सच तो यह है कि बात यहाँतक पहुँच गई है कि शिष्ट भारतीयोंको यूरोपीय स्थानोंमें नाश्ता पाना भी मुश्किल हो गया है। अभी हाल ही में नेटालके डंडी नामक गाँवमें यूरोपीयोंके एक गिरोहने एक भारतीय वस्तु-भंडारमें आग लगा दी थी। इससे वस्तु-भंडारको कुछ नुकसान पहुँचा था। एक दूसरे गिरोहने डर्बनकी एक व्यापारिक गलीके एक भारतीय वस्तु-भंडारमें जलते हुए पटाखे फेंक दिये थे।

यह द्वेष-भावना दक्षिण आफ्रिकाके विभिन्न राज्योंके कानूनोंमें भी उतार दी गई है। उनके द्वारा तरह-तरहसे भारतीयोंकी स्वतन्त्रतापर बन्दिशें लगा दी गई है। पहले नेटालको ही लीजिए। भारतीयोंकी दृष्टिसे उसका महत्त्व सबसे अधिक है। वहाँ हालमें भारतीयों-सम्बन्धी कानून बनाने की ज्यादा प्रवृत्ति दिखलाई गई है। सन् १८९४ तक भारतीयोंको उपनिवेशके सामान्य मताधिकार-कानूनके अनुसार यूरोपीयोंके बराबर ही मताधिकार प्राप्त था। यह कानून प्रत्येक बालिग ब्रिटिश प्रजाजनोंको, जिसके पास ५० पौंडकी स्थावर सम्पत्ति हो या जो १० पौंड सालाना किराया देता हो, मतदाता-सूची में शामिल किये जानेका हक देता था। जूलू लोगोंके लिए मताधिकारकी पात्रता भिन्न रखो गई थी। १८९४ में नेटाल-विधानमंडलने एक कानून पास करके एशियाइयोंका मताधिकार, उनका नामोल्लेख करके, छीन लिया। स्थानीय संसदमें हमने उसका विरोध किया। परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। तब हमने उपनिवेश-मंत्रीको प्रार्थनापत्र भेजा। फलतः इस वर्ष वह कानून वापस ले लिया गया है और उसके बदले दूसरा विधेयक पेश किया गया है। नया विधेयक उतना बुरा तो नहीं है, जितना पहला था; फिर भी वह काफी बुरा है। उसमें कहा गया है कि जिन देशों में अबतक संसदीय मताधिकारके आधारपर स्थापित निर्वाचन-मूलक प्रातिनिधिक संस्थाएँ न हों, उनके निवासियोंको (बशर्ते कि वे यूरोपीय वंशके न हों), सपरिषद गवर्नरसे अग्रिम अनमति प्राप्त किये बिना, मतदाता-सूचीमें शामिल नहीं किया जायेगा। इस विधेयकके अमलसे उन लोगोंको मुक्त रखा गया है, जो पहलेसे ही यथोचित रीतिसे मतदाता-सूचीमें शामिल हैं। इस विधेयकको पेश करने के पहले श्री चेम्बरलेनके पास भेजा गया था और उन्होंने इसपर अपनी अनुमति दे दी है। हमने