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भाषण : मद्रासकी सभामें

नागरिक अधिकार देनेसे इनकार करना। ब्रिटिश भारतीयोंने तो वर्षोंको कमखर्ची और अच्छे कामसे अपने-आपको नागरिकोंके वास्तविक दर्जेतक उठा ही लिया है।

अगर एशियाई मतोंके यूरोपीय मतोंको निगल जानेका कोई सच्चा खतरा मौजूद हो, तो हमें शिक्षाकी कसौटी जारी करने या सम्पत्ति-सम्बन्धी योग्यताको बढ़ा देनेपर कोई एतराज नहीं। हम जिस चीजपर आपत्ति करते हैं वह तो है वर्गविशेष-सम्बन्धी कानून और उसके कारण होनेवाली अवश्यंभावी गिरावट। हम विधेयकका विरोध करने में नये विशेषाधिकारके लिए नहीं लड़ रहे हैं। जिस सुविधाका हम उपभोग कर रहे हैं उससे वंचित किये जानेका विरोध कर रहे हैं। पिछले वर्ष नेटाल-सरकारने भारतीय-प्रवासी कानूनमें संशोधन करने के लिए एक विधेयक पेश किया था। वह विधेयक नेटाल-सरकारकी भारतीयोंको निरे काफिरोंके स्तरपर गिरा देने और, नेटालके महान्यायवादीके शब्दोंमें, "भविष्यमें जो दक्षिण आफ्रिकी राष्ट्र बननेवाला है उसका अंग बनने से उन्हें रोकने" की नीतिके ठीक अनुरूप है। मुझे अफसोसके साथ कहना पड़ता है कि हमारी आशाओंके विपरीत उसे सम्राज्ञी-सरकारकी अनुमति प्राप्त हो गई है। यह समाचार बम्बईकी सभाके[१] बाद प्राप्त हुआ है। इसलिए जरूरी है कि मैं इसकी कुछ विस्तारसे चर्चा करूँ। यह इसलिए भी जरूरी है कि इस प्रश्नका इस प्रदेशसे अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है और इसका अध्ययन यहाँ सबसे अच्छी तरह किया जा सकता है।

सन् १८९४ के १८ अगस्त तक गिरमिटिया भारतीय पांच साल नौकरी करनेके इकरारपर जाया करते थे। उन्हें नेटाल जानेका खर्च, अपने और अपने परिवारोंके लिए मुफ्त भोजन तथा निवास और दस शिलिंग माहवार मजदूरी दी जाती थी। दस शिलिंग मजदूरीमें हर साल एक शिलिग माहवारकी बढ़ोतरी होती थी। अगर वे स्वतंत्र मजदूरोंके तौरपर पांच साल और उपनिवेशमें रहें तो उन्हें भारत लौटने का टिकट मुफ्त पानेका हक भी होता था। अब यह नियम बदल दिया गया है। भविष्यमें, या तो प्रवासियोंको हमेशा गिरमिटिया बनकर उपनिवेशमें रहना होगा, जिस हालतमें ९ वर्षकी गिरमिटिया मजदूरीके बाद उनकी मजदूरी २० शिलिंग माहवार होगी; या भारत लौट आना होगा; या फिर तीन पौंड सालाना व्यक्ति-कर देना होगा। गिरमिटियोंकी मजदूरीके हिसाबसे यह रकम लगभग आधे वर्षकी कमाई होती है। सन १८९३ में नेटाल-सरकारने दो व्यक्तियोंका एक आयोग भारत भेजा था। उसका काम व्यक्ति-करको छोड़कर ऊपरके शेष सब परिवर्तनोंके लिए भारत सरकारको राजी करना था। वर्तमान वाइसरायने अपनी अनिच्छा व्यक्त करते हुए भी ब्रिटिश सरकारके मंजूर करनेकी शर्त पर परिवर्तनोंकी अनुमति दे दी। परन्तु उन्होंने अनिवार्य भारत-वापसीकी उपधाराकी अवज्ञाको फौजदारी अपराध मानने की अनुमति नहीं दी। नेटाल-सरकारने व्यक्ति-करकी उपधारा जोड़कर उस कठिनाईको हल कर लिया।

  1. जो २६ सितम्बर को हुई थी; देखिए पृ॰ ५३–६३।