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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करते हैं तो हम जगत्को, अपनेको और परमेश्वरको धोखा देते हैं। मालेगांवके लोगोंने ऐसा ही किया जान पड़ता है।

इस अकार्यसे हमारे संघर्षको जरूर धक्का पहुँचा है। और इससे अब स्वराज्य मिलनेमें अवश्य देर होगी। कौन जानता है कि हम महीने-पन्द्रह दिनमें ही स्वराज्य प्राप्त न कर लें ? हमने जब आन्दोलन शुरू किया तब उसका जो वेग था उसकी अपेक्षा वह आज इतना बढ़ गया है कि अब हम अपना क़दम कब वापस ले पायेंगे, इसका कोई अन्दाज नहीं लगा सकता । लेकिन हम जितनी भूल करते हैं, स्वराज्य आनेमें उतनी देर तो होती ही है, इतना तो एक बालक भी कह सकता है। जिस तरह हिसाब करते हुए भूल करनेपर फिरसे हिसाब लगाना पड़ता है उसी तरह हमें भी करना होगा ।

हमारी प्रतिज्ञा ऐसी है कि अधिकारी लोग हमें चाहे कितना ही उत्तेजित क्यों न करें तो भी हमें उनका विरोध नहीं करना है। हम मार खायेंगे लेकिन हाथ नहीं उठायेंगे और झुकेंगे भी नहीं। ऐसा होनेपर भी लगता है मालेगाँवके असहयोगियोंने एक सब-इन्स्पेक्टर तथा अन्य लोगोंको मार डाला है।

कुछ-एक असहयोगियोंने कानूनका सविनय भंग किया, उन्हें सजा हुई--उन्होंने उस सजाको झेल लिया, तिसपर भी लोगोंने बलपूर्वक उन्हें छुड़वाया। इस प्रकार खिलाफतका बचाव नहीं होता, स्वराज्य नहीं मिलता।

असहयोगका मुख्य और प्रधान स्वरूप शान्ति--अहिंसा--अमन है । जो शान्ति भंग करते हैं वही सरकारके सच्चे सहयोगी हैं। उदार दलकी अपेक्षा अशान्ति पैदा करनेवालोंसे सरकारको अधिक मदद मिलती है। दो-चार अधिकारियोंको खोकर यदि सरकार असहयोगको तोड़ सकती है तो उतने नुकसानको वह सहज ही उठा सकती है।

मैं अनेक बार लिख चुका हूँ कि शान्तिके बिना स्वराज्य अथवा खिलाफतके प्रश्नका निर्णय होना असम्भव है। वकील वकालत न छोड़ें, विद्यार्थी स्कूल न छोड़ें,अन्य लोग खुद अपनेसे सम्बद्ध असहयोग न करें तो काम चल सकता है, लेकिन कोई शान्तिको भंग करे तो बिलकुल काम नहीं चल सकता। हिन्दू-मुस्लिम मित्रता, शान्ति और स्वदेशी अर्थात् चरखा, ये तीन तो अनिवार्य शर्तें हैं, लेकिन इनमें भी शान्ति मुख्य वस्तु है । इक्के-दुक्के लोगोंको छोड़कर अधिकांश लोग खादी पहनने लगें तो हर्ज नहीं; थोड़ेसे हिन्दू और मुसलमान लड़ें, यह भी सहन किया जा सकता है, लेकिन अगर एक भी व्यक्ति शान्ति भंग करके खून-खराबी करता है तो यह असह्य है। इससेनदेशको भारी नुकसान होता है। शान्तिकी शर्त इतनी सख्त है।

लेकिन समस्त हिन्दुस्तान के लिए कौन उत्तरदायी हो सकता है ? यह प्रश्न हमारी दुर्बलताका परिचायक है। लोगोंके लूटपाट करनेपर जिस तरह सरकारमें उन्हें दबानेको शक्ति है उसी तरह लोगोंको अशान्ति फैलाने से रोकनेकी शक्ति प्राप्त करनेमें ही स्वराज्य मिलनेकी सम्भावना है । हममें अगर इतनी शक्ति नहीं है कि हम लोगोंको शान्ति बनाये रखने के लिए प्रेरित कर सकें तो हमें स्वराज्यका विचार छोड़ देना चाहिए। हम लोगोंपर प्रभाव डाल सकते हैं, इसी विश्वासपर हमारे संघर्षकी इमारत