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समय दिया जा सकता है। एक शिक्षित अंग्रेज प्रवृत्तियोंको बदल-बदलकर उनमें से आनन्द और आराम प्राप्त कर लेता था । यदि वह कॉमन्स सभासे थककर निकलता तो वह मक्खियों और चींटियोंकी हरकतोंको देखने बैठ जाता था। इस कार्यसे ऊब जानेपर वह पुस्तकें पढ़ने लग जाता । इस तरह वह अपना आराम और निर्दोष आनन्द विविध प्रवृत्तियोंसे प्राप्त कर सकता था। हम भी अपने विद्यार्थियोंको ऐसी आदत क्यों न डालें ? चरखेसे थकनेपर हिन्दी सीखें, इससे मन उचट जानेपर फिर चरखा ले बैठें, ऐसा करनेकी हिम्मत न हो तो संगीत सीखें, और संगीतसे उकतानेपर फिर चरखेका विचार करें, इन सबके बाद भी अगर चरखेमें मन न लगे तो कवायद सीखें । इसके बाद फिर चरखेका चिन्तन करें। ऐसा करनेसे उन्हें चरखेका व्यसन हो जायेगा ।इस समय राष्ट्रको यदि किसी व्यसनकी जरूरत है तो वह चरखेके व्यसनकी है । शराब पीनेवाले को एक अक्सीर इलाजके रूपमें मैं चरखेका सुझाव देता हूँ। शराबकेबनशेसे चरखेका नशा कम नहीं होता । जिसको उसका चस्का लग गया वही उसके प्रभावको जानता है। अन्तर यही है कि एक मारता है, दूसरा जिलाता है।

कार्य--कौशल

कार्यकी निपुणताके अभावमें चरखा नहीं चल सकता । है तो यह एक छोटा-सानहथियार, चलानेमें हलका, कीमत भी अपेक्षाकृत बहुत कम तथापि वह व्यक्तिके उद्यमकी,उसकी दृढ़ताकी, उसकी ईमानदारीकी, उसकी शान्तिकी समुचित परीक्षा ले लेता है। कातनेका मतलब रुईको चाहे जैसे खींचना नहीं है। कातनेका मतलब तो उसकी अगली क्रियाओं को जानना है। जिन्होंने रामानुजका लेख पढ़ा है वे इस बातको समझ सकेंगे। आन्ध्र देशमें १२० नं० का सूत कातनेवाली स्त्रियाँ कपासकी परीक्षाके विविध रूपोंसे अवगत हैं--वे अपने हाथों कपास तोड़ती हैं, स्वयं ही कपास ओटती हैं, स्वयं ही रुई पींजती हैं और समुद्रके फेनके समान चमचमाती हुई शुभ्र और मुलायम पूनियाँ भी ये स्त्रियाँ खुद अपने हाथों तैयार कर लेती हैं। मुख्य रूपसे इसीमें उनकी कलाका उपयोग होता है, बादमें १२० नं० का सूत कातना उन्हें बच्चोंका खेल जान पड़ता है। कातनेकी क्रिया समय लेती है । इससे पहलेकी क्रियाएँ आसान हैं और थोड़ा समय लेती हैं। सभीको उपर्युक्त आदर्श स्त्रियोंके समकक्ष पहुँचनेकी जरूरत नहीं है, लेकिन सभीके लिए पींजने और पूनी बनानेकी क्रिया जान लेना तो जरूरी ही है । पूनी बनाना एक दिनमें सीखा जा सकता है। पींजना सीखनेके लिए समझ लीजिए कि एक हफ्ता लगता है। प्रत्येक कातनवाले को इतना समय लगाकर पींजना अवश्य जान लेना चाहिए । मिलकी पूनीका उपयोग करनेसे हमारा उद्देश्य पूर्ण नहीं होता और प्रत्येक स्थानपर मिलकी बनी पूनियाँ पहुँचाई भी नहीं जा सकतीं ।

पाठकको यह भी जान लेना चाहिए कि पहले रुई पींजना एक धन्धा था, सामाजिक धर्म नहीं। अतएव पिंजारों (धुनियों) को अन्य कारीगरोंके माध्यमसे ही आजीविका प्राप्त होती थी । पिंजारे महीने में आसानीसे ४५ रुपये अथवा कमसे कम तीस रुपये कमा लेते हैं । बम्बईमें कितने ही लोग इससे प्रतिदिन ढाई रुपया कमाते हैं। कातने- वालेको अपने हाथों रुई पींजनेमें इतना कम समय लगता है कि वह यदि जीविका