पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/११५

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९४ ? सम्पूर्ण गाधी वाङ्मय प्र० · जो न्याय प्रतिनिधियोपर लागू होता है क्या वही आपके अनुयायियो अथवा आपके सिद्धान्तोके प्रशासकोपर लागू नही होता? उ० मेरा तो कोई अनुयायी नही है, अथवा वही व्यक्ति मेरा अनुयायी है जो मेरे सिद्धान्तोको पसन्द करता और उनके अनुसार चलता है। इसलिए अनुयायी सिद्धान्तोका अनुकरण नहीं करेगा, यह कहना ही अर्थहीन है। मेरे ‘अनुयायी' को प्रमाणपत्रकी जरूरत ही नहीं होती। सब उसे पहचान लेते है। जो सत्य नही बोलता, सत्य आचरण नहीं करता, जो मन, वचन और कर्मसे दयाका पालन करनेके लिए प्रयत्न नही करता, जो खादी नही पहनता और विदेशी कपडेका सर्वथा त्याग नही करता, जो भगीको अपने सगे भाईके समान नही मानता, जो परस्त्रीको अपनी माँ-वहन नही मानता, जो धर्मकी खातिर, देशकी खातिर, सत्यकी खातिर मरनेके लिए तैयार नही होता, जो अपनी तुच्छताको समझकर नम्रभावसे व्यवहार नही करता वह मेरा 'अनुयायी' नही है । सिद्धान्तोके प्रशसकपर भी मै तो यही कानून लागू करूंगा। कथनी और करनीमे भेद रखने और उसे सहन करनेकी हमे इतनी आदत पड़ गई है कि यह एक रोग बन गया है। जो जैसा बोलते है वैसा करनेको तैयार नहीं होते, अगर वे बोलना ही बन्द कर दे तो मैं जानता हूँ कि ससार बहुतसे वितण्डावादसे, व्याख्यानोसे और फसादोसे बच जाये। प्र. जो ऐसे 'परोपदेशे पाडित्यम्' मे कुशल प्रतिनिधियो और प्रशसकोके समर्थन- से स्वराज्य मिल जाये तो क्या आप उसे स्वीकार करेंगे। अगर स्वीकार करेंगे तो ऐसा स्वराज्य कबतक टिक सकेगा? उ.. स्वराज्यको स्वीकार करना मेरे अधिकारकी बात नहीं है। उसे तो जनता स्वीकार करेगी। जनताके प्रतिनिधिके रूपमे मै जानता हूँ कि ऐसे मिथ्याचारसे स्वराज्य नही मिलता। और अगर मिल जाये तो टिकेगा अथवा नहीं, यह सवाल ही नहीं उठता। हम सहज ही देख सकते है कि इस भाईने बहुत दुखी होकर ये सारे प्रश्न पूछे है। ऐसे ही प्रश्न अनेक सरल स्त्री-पुरुषोके दिलोमें उठा करते है। प्रत्येक असह- योगीको अपने व्यवहारसे इन प्रश्नोका समाधान करना चाहिए। स्वराज्य मिलनेमै जो देर लग रही है उसका कारण हम लोग ही है। इस भाईने अपने पत्रकी प्रस्तावनामे कुछ और भी शकाएँ उठाई हैं। वे विचार करने योग्य है इसलिए उन्हे में प्रश्नोत्तरके रूपमें प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्र० आपके कुछ-एक सिद्धान्तोमे क्या मनुष्य-स्वभावके विरुद्ध विचित्र त्याग करनेकी वात नही होती' उ० : असहयोगके एक भी सिद्धान्तमें ऐसे कठिन त्यागकी बात नही आती। भसहयोगके अन्तर्गत त्याग सहल है और लोकस्वभावके विरुठ भी नहीं है, इसीसे जनताने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया है, ऐसी मेरी मान्यता है। मुख्य सिद्धान्त तो हिन्दू-मुस्लिम एकता, अशान्तिकी स्थितिमे भी शान्ति बनाये रखना, विदेशी वस्त्रका सर्वथा त्याग, नित्य एक निश्चित समयतक चरखा चलाना, यथाशक्ति दान देना, भगीको भाई मानना, दारू तथा व्यभिचारका त्याग करना आदि है। इनमें में कही