पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/१३

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सात

आलोचना की तो उसे उन्होंने चुनौतीकी तरह लिया और विनम्रता के साथ उसका बहुत ही स्पष्ट और दृढ़ उत्तर दिया। उन्होंने आन्दोलन और उसकी विकृतिके भेदको समझने की प्रार्थना की और लिखा: “हो सकता है कि असहयोग आन्दोलन अपने उचित समयके पहले ही शुरू हो गया हो । तब हिन्दुस्तान और संसार दोनोंको उचित समयकी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। पर हिन्दुस्तान के सामने हिंसा और असहयोग इन दोमें से किसी एकको चुनने के अलावा कोई मार्ग नहीं रह गया था।" उन्होंने कहा कि कविको ऐसा नहीं मानना चाहिए कि "असहयोग आन्दोलन भारतवर्ष तथा यूरोपके बीच एक बड़ी दीवार खड़ी करना चाहता है । इसके विरुद्ध असहयोग आन्दोलनका मंशा यह है कि पारस्परिक सम्मान और विश्वासकी बुनियादपर बिना किसी दबावके सच्चे, स्वैच्छिक तथा सम्मानपूर्ण सहयोगके लिए जमीन तैयार की जाये।...असहयोग आन्दोलन इस बात के विरोधमें किया गया है कि बिना हमारी इच्छा और जानकारीके हमसे बुराईमें सहयोग कराया जा रहा है।" (पृष्ठ १६२)


अंग्रेजीके तथाकथित महत्त्वपर टिप्पणी करते हुए गांधीजीने कहा कि राष्ट्रीय सामर्थ्य ही वह चीज है जो विदेशके प्रभावको ठीकसे पचा सकती है। “मैं अपने-आपको खुली हवाका उतना ही बड़ा उपासक मानता हूँ जितना कि कवि स्वयं अपने-को मानते हैं। मैं अपने घरको चारों ओरसे दीवारोंसे घेर नहीं लेना चाहता और न खिड़कियोंको बन्द कर रखना चाहता हूँ। मैं तो चाहता हूँ कि सब देशोंकी संस्कृतियाँ मेरे घरके चारों ओर अधिकसे-अधिक निर्बाध रूपमें प्रवाहित हो सकें । अलबत्ता मैं यह कभी नहीं चाहूँगा कि उनके तेज झोके मेरे पाँव ही उखाड़ दें। मैं किसी दूसरेके घरमें एक अवांछनीय मेहमान, भिखारी या गुलामके रूपमें रहना भी बरदाश्त नहीं करूंगा । ...मेरा धर्म जेलकी तंग कोठरी- जैसा संकुचित और अनुदार नहीं है। इसमें तो भगवान्की सारी सृष्टिके लिए स्थान है। लेकिन अविनय, जाति, धर्म अथवा वर्णगत अहंकारके लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है।" (पृष्ठ १५८)

इस तरह असहयोग भावनाकी नई अभिव्यक्तिका आधार तैयार किया जा रहा था। गांधीजीने वाइसरायका भाषण आन्दोलनको समझनेकी दिशामें एक प्रारम्भिक प्रयत्न माना। किन्तु फिर उन्होंने लिखा: “पहलेकी बहुत-सी असफलताओंको वाइसरायने अपने भाषणमें कहीं भी खुले दिलसे स्वीकार नहीं किया है। इसीलिए उसमें नया अध्याय आरम्भ करनेकी, नये सिरेसे काम करनेकी सहज आकांक्षाका अभाव दिखाई देता है।” (पृष्ठ १८८-९) इसके बाद अली बन्धुओंके माफीनामेको लेकर वाइसरायने जो विज्ञप्ति निकाली और उसके विषयमें जो भाषण दिया, उसपर गांधीजीको "बहुत ही दुःख" हुआ, क्योंकि वे दोनों ही तथ्योंकी दृष्टिसे गलत थे । २८ जूनको उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि जिन परिस्थितियों और कारणोंसे बे वाइसरायसे मिले,उनका एक ऐसा विवरण प्रकाशित किया जाये जिसे दोनोंकी मंजूरी प्राप्त हो । क्योंकि उनकी समझमें वाइसराय नौकरशाहीके हाथोंमें खेल गये थे और नौकरशाही तो "बहुत चालाक, संगठित और पूर्णतया सिद्धान्तहीन" होती है।

इसके बाद तय हो गया कि तत्कालीन शासन-पद्धतिके विरुद्ध प्रचार करना असहयोगीका कर्त्तव्य है। गांधीजीने इन्हीं दिनों असहयोग और सविनय अवज्ञाके अन्तर