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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


हमें किसानोंसे यह कहने में जरा भी हिचकिचाहट न होगी कि वे सरकारको लगान देना मुल्तवी कर दें, लेकिन असहयोगके किसी भी दौर में हम जमींदारोंको उनके लगानसे वंचित करनेकी तो कोई भी बात नहीं सोचते। इसलिए किसान आन्दोलन- को किसानोंकी दशा सुधारने और किसान-जमींदार सम्बन्धोंको बेहतर बनाने तक ही सीमित रखना चाहिए। किसानोंको यह बात समझाई जानी चाहिए कि जमींदारोंके साथ किये गये अपने इकरारनामोंकी शर्तोंका वे ईमानदारी के साथ पूरा-पूरा पालन करें, चाहे वे इकरारनामे लिखित हों या रस्मी। अगर कोई रस्मी या लिखित इकरारनामा भी बुरा हो और उसे भंग करना जरूरी ही हो जाये तो पहले जमींदारको इत्तिला देकर केवल शान्तिपूर्ण तरीकेसे ही वैसा करना उचित है, हिंसाका सहारा तो कभी नहीं लेना चाहिए। हर हालत में जमींदारोंके साथ दोस्ताना ढंगसे बातचीत करके समझौते की कोई सूरत निकालनी चाहिए। हमारा राष्ट्र दुनिया के सबसे बड़े और प्राचीनतम राष्ट्रोंमें से है; इसलिए इसके जीवनमें एक साथ कई जटिल समस्याओं का उठ खड़ा होना स्वाभाविक ही है। उन सभी समस्याओंको सरकारकी सहायता या उसके हस्तक्षेपके बिना हल करनेकी हमारी सामर्थ्यपर ही स्वराज्य प्राप्त करनेकी हमारी सामर्थ्यं निर्भर करती है।

अनुशासन

अब वह समय आ गया है जब हमें अवश्य ही अनुशासनका पालन करना सीख लेना चाहिए। अब यह बात टाली नहीं जानी चाहिए। स्टेशनोंपर जो प्रदर्शन किये जाते हैं, वे यात्रियोंके लिए काफी तकलीफदेह बनते जा रहे हैं। मुझे बताया गया है। कि जो रेल यात्री स्टेशनपर प्रदर्शन होनेके कुछ समय पहले मेरी तारीफ कर रहे थे वे ही अगले कुछ स्टेशनोंपर दो-एक प्रदर्शनोंके बाद मुझे कोसने लगे। मुझे उनके साथ पूरी सहानुभूति है। इलाहाबाद जाते हुए मेरे एक सहयात्रीको भीड़के कारण बड़ी तकलीफ हुई। प्लेटफार्मपर भीड़ इस तरह टूट पड़ी कि उन्हें एक प्याली चाय भी न मिल सकी। वे जलपान के लिए बाहर तो जा ही नहीं सके। अगर उन्होंने मुझे एक बवाल समझ लिया तो कोई ताज्जुब नहीं। इलाहाबादसे लौटते हुए कानपुरके प्लेटफार्मपर तो भीड़ बिलकुल काबूसे बाहर हो गई। हजारों आदमी शोर मचाते, राष्ट्रीय नारे लगाते हुए मेरे डिब्बेपर टूटे पड़ रहे थे। इससे सभीको खासी असुविधा हुई। नेताओंने किसी तरह भीड़को बिठा तो दिया, पर शोर और नारे बन्द न किये जा सके। अन्ततक गुल-गपाड़ा मचता ही रहा। फिर मुझसे कहा गया कि मैं दरवाजे पर आकर लोगोंको दर्शन दूं। लेकिन मैंने साफ कह दिया कि जबतक शोरगुल बिलकुल थम नहीं जाता मैं अपनी जगह से हिलूंगा नहीं। दर्शन देनेका आग्रह करनेवाले दोस्तोंको इससे जरूर निराशा हुई होगी।

इस सारे शोर-गुल और धक्का-मुक्कीकी खास वजह यह है कि पहलेसे सारी बातें सोच-विचारकर ठीकसे इन्तजाम नहीं किया जाता और फिर संगठनकी कमजोरी भी है। अच्छा तो यही होगा कि स्टेशनोंपर प्रदर्शन कतई न किये जायें। रेलके यात्रियों की सुविधाका खयाल हमें करना ही होगा। अगर स्टेशनोंपर स्वागत करना ही हो