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तो राष्ट्रीय नारे कमसे-कम और समझ-बूझकर लगाये जायें और ऐसा इन्तजाम रहे जिससे मुसाफिरोंको चढ़ने-उतरने और प्लेटफार्मपर आने-जाने में किसी तरह की दिक्कत न हो। वक्त आ गया है कि जन-आन्दोलनको पूरी गम्भीरता और बाकायदा चलानेकी तमीज और अनुशासन हमारे राष्ट्रमें पैदा हो। इसका मतलब यह हुआ कि स्वयंसेवकोंको पहलेसे इसकी तालीम दी जाये और जनताको भी अनुशासनका पालन करनेकी बात पहलेसे ही सिखा-समझा दी जाये। मोटी-मोटी बातें सिखलानेमें कुछ ज्यादा दिन भी नहीं लगते। जहाँ-जहाँ लोगोंको पहले समझा दिया गया था, वहाँ उनका बरताव काफी अच्छा रहा। अनुशासनकी तालीमके बिना पता नहीं कब कैसी दुर्घटना हो जाये। अभीतक कोई अनर्थ नहीं हुआ, इसका कारण लोगोंकी सहज भलमनसाहत ही है, नहीं तो ऐसे भीड़-भड़क्केमें उपद्रव होते क्या देर लगती है। अगर ठीक तरीकेसे तालीम दी जाये तो बड़ेसे-बड़े प्रदर्शनोंके बावजूद हम सर्वथा निश्चिन्त और सुरक्षित रह सकते हैं; उससे किसी खतरेका अन्देशा नहीं रह जाता। सभा और जुलूसोंमें पागलोंकी तरह धक्का-मुक्की और शोरगुल हमारे लिए नुकसानदेह है।

सिखोंका रंग

एक मित्रने मेरा ध्यान अभी-अभी सिख लीगके उस प्रस्तावकी ओर खींचा है जिसमें मुझसे अनुरोध किया गया है कि मैं राष्ट्रीय झण्डेमें सिखोंके काले रंगको भी स्थान दूँ। ये मित्र भूल जाते हैं कि सफेद पट्टीमें बाकी के सभी रंग आ जाते हैं। हमें क्षेत्र, प्रान्त या फिरकोंकी संकीर्ण विचारधाराको नहीं अपनाना चाहिए। झण्डेमें हिन्दू और मुसलमान रंगोंको इन दोनों सम्प्रदायोंकी संख्या के कारण ही जगह नहीं दी गई है। बल्कि खास वजह यह है कि दोनों कौमें लम्बे अर्सेसे एक-दूसरेसे अलग रही हैं और इनका आपसी अविश्वास हमारी आजादीके रास्तेका रोड़ा बना हुआ है। इसलिए दोनोंकी एकताके प्रतीकस्वरूप वे रंग रखे गये हैं। सिखोंकी तो हिन्दुओंसे कभी कोई लड़ाई रही नहीं और अगर सिखोंके रंगको जगह दी जाये तो फिर पारसियों, ईसाइयों और यहूदियोंने क्या कसूर किया है; उनके रंगोंको भी क्यों न जगह दी जाये? मुझे आशा है सिख लीगवालोंके ध्यानमें भी यह बात आ जायेगी कि उनका सुझाव कितना अव्यावहारिक है।

प्रस्तावित राष्ट्रीय झण्डेमें तब्दीलियाँ सुझानेवाले पत्रोंका मेरे पास ताँता ही लग गया है। उन सभी पत्रोंको छापना नामुमकिन सा है। फिर किसी भी पत्र में कोई खास बात नहीं कही गई है। किसीको इस बातका अफसोस है कि झण्डेमें कलात्मक शोभा नहीं तो कुछ उसमें हिन्दू और मुसलमान प्रतीकोंको रखनेकी बात करते हैं। ये सब आलोचक मूल मुद्देकी बात भूल गये हैं। हमारे राष्ट्रीय झण्डेमें धार्मिक प्रतीकोंको जगह नहीं दी जा सकती, उसपर तो कोई ऐसा प्रतीक रहना चाहिए जो सबका हो और सब उसे अपनाकर एक हो सकें। चरखा ऐसा ही निशान है। और ज्यादातर लोग मेरी इस रायसे सहमत हैं कि जबसे चरखा छूटा, हमारी आजादी लुट गई, और चरखेको अपनाकर तथा विदेशी कपड़ोंका पूरा परित्याग करके ही हम अपनी खोई हुई आजादी फिरसे हासिल कर सकते हैं।