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हमारे पड़ोसी


जबरदस्त खतरा मानता हूँ; और इसको सुधारनेके लिए कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े, मैं उसके लिए हमेशा तैयार रहूँगा। इसमें अब मुझे कोई शंका नहीं रही कि यह सरकार ईश्वरसे पराङ्मुख है। और चूंकि कुछ भले अंग्रेज और हिन्दुस्तानी इसे सहयोग दे रहे हैं अतः यह भारतके लिए और भी ज्यादा खतरनाक हो गई है। इसके कारण इसकी जन्मजात बुराइयोंपर भारतवासियोंकी नजरें नहीं पड़ पातीं। मेरी लड़ाई व्यक्तियोंसे नहीं सरकार कही जानेवाली समूची प्रणालीसे है। अच्छेसे-अच्छे वाइसराय भी इस प्रणालीके अन्दरतक भिदे हुए जहरको निकालनेमें कामयाब नहीं हो सके और विवश होकर रह गये। क्योंकि जहरकी नींवपर ही तो इसका सारा महल खड़ा किया गया है। इसलिए मौजूदा तन्त्रको बदलनेपर अगर भारतकी तबाही हो, अधिकसे-अधिक तबाही हो, तो मैं उसमें भी समाधान मान लूंगा।

लेकिन मैं क्या करना चाहूँगा और मैं सचमुच क्या कर सकता हूँ, ये दोनों बातें एक-दूसरेसे बिलकुल ही जुदा-जुदा हैं। मुझे दुःखके साथ इस बातको मंजूर करना पड़ता है कि अभी हमारा आन्दोलन फौजी भाइयोंपर इस हदतक असर नहीं डाल सका है कि वे जरूरत के समय सरकारकी मदद करनेसे इनकार करनेकी हिम्मत कर सकें। जब सारे सैनिक इस बातको समझ जायेंगे कि उनकी जिन्दगी भी राष्ट्रके लिए है और हुक्म पाकर खून बहाना सैनिकके पेशेका मखौल है, तो हिन्दुस्तानकी भौतिक स्वतन्त्रताकी लड़ाई बगैर किसी कोशिशके जीती जा चुकेगी। लेकिन आजकी हालत में तो आम लोगोंकी तरह ही हिन्दुस्तानी सैनिकके मनमें भी भय समाया हुआ है। वह फौज में इसलिए भरती होता है क्योंकि उसे गुजर-बसरका दूसरा कोई जरिया नजर ही नहीं आता। सरकारने एक तो तरह-तरह के इनाम-इकरामों द्वारा हत्याके इस पेशेको खासा लुभावना बना दिया है और फिर कुछ इस तरहकी सजाएँ तजवीज कर रखी हैं कि जो एक बार इसमें फँस गया वह बगैर मुसीबत उठाये निकल नहीं सकता। इसलिए मुझे ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि अगर अफगान तुरन्त हमला कर बैठें तो सरकार हिन्दुस्तानियोंकी मददसे महरूम हो जायेंगी। लेकिन जब खास तौरपर चुनौती दी गई तो मैंने असहयोग आन्दोलनका एक सुसंगत दृष्टिकोण देशके सामने रख देना अपना कर्त्तव्य समझा। साथ ही देशको सावधान करना भी जरूरी हो गया था कि वह अफगानी हौ एसे बिलकुल न डरे।

सवालका दूसरा हिस्सा, मेरी रायमें, अहिंसाकी गलत धारणासे उत्पन्न हुआ है। जब दूसरी ताकतें सरकारसे लड़ाई छेड़ें तो ऐसे समय सरकारकी मदद करना अहिंसावादी असहयोगीका कर्त्तव्य नहीं है। अहिंसावादी असहयोगी ऐसी किसी भी लड़ाईको प्रकट या गुप्त रूपसे न तो बढ़ावा ही देता है और न उसमें किसी तरह की मदद ही करता है; वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें ऐसी लड़ाईमें हिस्सा नहीं लेता। यह भी उसका काम नहीं है कि वह लड़ाईको खत्म करनेमें सरकारकी कोई मदद करे। वह तो इस सरकारको नष्ट करनेकी कोशिश कर रहा है; वह उसकी हारके लिए प्रार्थना करेगा, जो उसे करनी भी चाहिए। इसलिए जहाँतक मेरे अहिंसा-धर्मका सवाल है मैं जरा भी विचलित हुए बिना पूरी शान्तिके साथ, अफगानी हमलेकी कल्पना कर सकता हूँ और भारतकी सुरक्षाके बारेमें भी मुझे कोई चिन्ता नहीं है। अफगानोंकी भारतसे