पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/१६

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दस

है। इसीलिए "कांग्रेसका सिद्धान्त जान-बूझकर ऐसा लचीला बनाया गया है कि स्वराज्यकी माँगके लिए उसमें जगह रहे।" (पृष्ठ ३६८)

स्पष्ट ही स्वराज्यकी पालकी कांग्रेसके कन्धोंपर चढ़कर आनी थी। २२ जुलाईको अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीकी बैठकमें कांग्रेसके विधानके विषयमें बोलते हुए उन्होंने कहा कि वह बनाया ही इस दृष्टि से गया है कि देश उसके मुताबिक चलते हुए स्वशासनकी अपनी शक्तिको बढ़ाये और शुद्ध करे। उन्होंने दाबा किया कि जैसे-जैसे कांग्रेसकी शक्ति बढ़ती जायेगी, सरकारकी शक्ति कम होती चली जायेगी और "जिस दिन लोग कांग्रेसमें पूरी तरह विश्वास करने लगेंगे और उसके निर्देशोंका स्वेच्छया पालन करने लगेंगे, उसी दिन पूर्ण स्वराज्य स्थापित हो जायेगा। (पृष्ठ ३०२) नरसिंह चिन्तामण केलकरको अपने ४ जुलाईके पत्रमें उन्होंने लिखा: "हमें कार्य-समितिको ऐसी संस्था बना देना चाहिए जो तेजीसे कार्य कर सके, जो शक्ति-शालिनी हो और जिसमें मतैक्य हो। . . . मेरा तो विश्वास है कि हम कांग्रेसके संविधानको दक्षतापूर्वक कार्यान्वित करके जो-कुछ चाहते हैं वह सब पा सकते हैं। (पृष्ठ ३३४)

राजनीतिक क्षेत्रमें इस तरह व्यस्त रहने पर भी गांधीजी सामाजिक क्षेत्रोंमें अस्पृश्यता-निवारण जैसे सुधारोंपर बराबर ध्यान दिये रहे। वे इस प्रथाके विरोधमें लिखने-बोलनेका एक भी अवसर हाथसे नहीं जाने देते थे, क्योंकि वे मानते थे कि इससे मुक्ति पाना हिन्दू समाजका धर्म है। वे इस प्रथाको तर्क-सम्मत नहीं मानते थे और कहते थे कि यह सत्य और अहिंसाके भी विरोधमें है और धर्मसे तो इसका कोई वास्ता हो ही नहीं सकता। वे जानते थे कि अपनी निर्मम आलोचनाके कारण बहुतसे लोगोंने उनका साथ छोड़ दिया है और अनेक उनके विरोध हो गये है, किन्तु अस्पृश्यताके साथ समझौता करना उनके लिए असम्भव था। साम्प्रदायिक एकतापर भी वे इसी तरह जोर देते रहे। ये बातें उनके लिए कोरे शब्द नहीं थे; वे इन्हें जीवन-मरणका प्रश्न मानते थे। उन्हें इस बातकी सचाईको समझ लिया था: "आपसी फूटसे तो हमारी बर्बादी ही है।" (पृष्ठ ८८) मजदूरों और मालिकोंमें भी वे अधिक मेल-जोल चाहते थे और यह भी कानूनन नहीं बल्कि वास्तविक हृदय-परिवर्तनके द्वारा। उनकी रायमें जो कानून लोकमत तैयार होने के पहले ही बना दिया जाता है वह किसी कामका सिद्ध नहीं होता। मद्य-निषेधको भी वे एक अनिवार्यता मानते थे। उन्होंने कहा: "पूर्ण मद्य-निषेध किसी प्रकारके प्रशासन के अन्तर्गत तो राष्ट्रके आग्रहपर ही किया जा सकता है।" (पृष्ठ ३८२)

इस खण्डकी सर्वाधिक मूल्यवान् मणि कदाचित् "श्रद्धाका स्वरूप" है। (पृष्ठ ३८२-८६) यहाँ गांधीजीने गोखले के प्रति अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए गुरु-शिष्य सम्बन्धोंकी पवित्रतापर जोर दिया है। उन्होंने अपने गुरुकी जो विशेषताएँ वर्णित की हैं, सारा संसार स्वीकार करेगा कि वे शिष्यपर भी भली-भाँति लागू होती हैं: "स्फटिकके समान शुद्ध, मेमनेकी भाँति विनम्र, और सिंहके समान शूर थे। उनमें उदारता तो इतनी थी कि वह एक दोष बन गई थी। वे राजनीतिक क्षेत्रमें सबसे दोषरहित व्यक्ति थे और हैं।"