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शिमला-यात्रा


है कि हमारी तकलीफ क्या है। वाइसराय महोदय एक बड़ी ताकतके नुमाइन्दे हैं। वे यह जानना चाहते थे कि मैं, जो सहयोगको अपना परम धर्म समझता था, असहयोगी क्यों हो गया हूँ। या तो सरकारकी समझमें कहीं कोई गलती होनी चाहिए या फिर मैंने ही कोई गलती की होगी।

इसलिए वाइसराय महोदयने मालवीयजी महाराजसे और एन्ड्रयूज साहबसे भी यह ख्वाहिश जाहिर की कि वे मुझसे मिलना और मेरे विचारोंको समझना चाहते हैं। मैं मालवीयजीसे मिलने गया, क्योंकि वे मुझसे मिलना चाहते थे। मैं उनकी इतनी इज्जत करता हूँ और कभी यह गवारा नहीं करूँगा कि वे खुद चलकर मुझसे मिलनेके लिए आयें, चाहे वे स्वस्थ ही हों। फिर इस बार तो वे इतने कमजोर थे कि यात्रा कर ही नहीं सकते थे। इसलिए उनसे मिलने जाना मैंने अपना कर्त्तव्य समझा। वाइसरायसे उनकी जो बात हुई उसका सार जाननेके बाद मैं तुरन्त मुलाकात के लिए राजी हो गया। अगर वाइसराय मेरे विचारोंको जानना चाहते हैं तो उनसे मुलाकातका समय माँगनेके लिए उनकी ओरसे पहल किये जानेकी मैंने कोई जरूरत नहीं समझी। वाइसरायसे मुलाकातका समय माँगनेके बारेमें इतने विस्तारसे लिखनेका उद्देश्य केवल इतना ही है कि असहयोगके अर्थ और उसकी मर्यादाओंका मैं खुलासा कर देना चाहता हूँ।

असहयोग आदमियोंके नहीं बल्कि तरीकोंके खिलाफ है। वह गवर्नरोंके नहीं बल्कि जिस तरीकेसे वे हुकूमत करते हैं उसके खिलाफ है। असहयोगकी नींव घृणापर नहीं रखी गई है; वह अगर प्रेमपर नहीं किन्तु न्यायपर तो आधारित है ही। ग्लैडस्टन[१] बुरे कामों और बुरे आदमियोंके बीच बड़ा फर्क करते थे। एक बार उन्होंने अपने विरोधियोंके तरीकोंके बारेमें काफी कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया तो उनपर अविनयका आरोप लगाया गया। तब अपनी सफाईमें उन्होंने कहा था कि जैसे उनके कारनामे हैं उनको अगर मैं वैसा ही न बताता तो अपने कर्त्तव्यसे च्युत हो जाता, मगर इसका यह मतलब नहीं कि जो कुछ मैंने उनके कारनामोंके बारेमें कहा है वह उनपर व्यक्तिगत रूपसे भी लागू होता है। तरुणाईमें जब मैंने उनकी यह दलील सुनी तो वह मेरी समझ में नहीं आई थी। अब इतने बरसोंके तजुर्बे के बाद और उसपर अमल करके मैंने जाना कि उन्होंने कितना सच कहा था। मैं जानता हूँ कि मेरे कुछ बहुत ही सच्चे दोस्तोंने ऐसे काम भी किये हैं जिनका बिलकुल समर्थन नहीं किया जा सकता। श्री वी० एस० श्रीनिवास शास्त्रियर-जैसे सच्चे आदमी बहुत ही थोड़े होंगे, मगर उनके काम मुझे हैरानीमें डालनेवाले होते हैं। उनका ऐसा विश्वास हो गया है कि मैं हिन्दुस्तानको रसातलकी ओर लिये जा रहा हूँ, लेकिन इससे मुझपर उनका स्नेह कम हो गया हो, ऐसा मैं नहीं मानता।

और मैं समझता हूँ कि असहयोगके इस महान् आन्दोलनने मेरी ही तरह हजारों लोगोंको यह बात समझा दी है कि हम, लोगोंके कामों और व्यवस्थाओंपर आक्षेप करते हैं न कि व्यक्तियोंपर। वैसा तो हमें कदापि नहीं करना चाहिए। हम खुद अपूर्ण

  1. (१८०९-९८); इंग्लैंडके उदारदलीय प्रधान मन्त्री १८६८-७४, १८८०-८५, १८८६ और १८९२-९४।