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७५. गुजरातके धनिक-वर्ग से

जूनकी ३० तारीख समीप आती जाती है। गुजरातमें अभी हम तिलक स्वराज्य कोषके लिए दो लाख रुपया भी इकट्ठा नहीं कर पाये हैं। उसमें भी वस्तुतः धनिक वर्गका योगदान बहुत कम है।

क्या धनिक-वर्गको स्वधर्म प्रिय नहीं? और क्या वे हिन्दुस्तानको जगत् के सम्मुख गर्वसे खड़ा हुआ नहीं देखना चाहते? हिन्दुस्तानमें जो तीन करोड़से भी अधिक लोग भूखे मरते हैं क्या उनका पेट भरनेके लिए वे अपना योगदान नहीं देना चाहते? क्या उन्हें हिन्दुस्तानकी कीर्ति प्रिय नहीं है? क्या उन्हें हिन्दुस्तानका गुलामीसे मुक्त होना पसन्द नहीं है? यदि वे चाहें तो गुजरातका बोझा एक दिनमें उठा सकते हैं, क्या यह बात सच नहीं है? यदि सिर्फ अहमदाबादके मिल-मालिक चाहें तो क्या एक ही दिनमें दस लाख रुपया नहीं दे सकते?

वे चाहें तो बहुत-कुछ कर सकते हैं। मैं आशा रखता हूँ कि वे देशमें इस समय प्रचण्ड वेगसे जो आन्दोलन चल रहा है उसमें अपना हिस्सा दिये बिना न रहेंगे।

“यदि हम सहायता करेंगे तो सरकार अड़चनें डालेगी”, मुझे उम्मीद है कि धनिक-वर्ग अपने मनसे इस दहशतको निकाल देगा। मनमें ऐसी दहशत रखने के दिन अब लद गये। और फिर यदि एक ही धनिकके पैसा देनेकी बात हो तो उसे डराया भी जा सकता है लेकिन जहाँ सबकी बात आती है वहाँ यह कैसे सम्भव हो सकता है।

तथापि डर ऐसी चीज है कि यदि किसीकी देनेकी इच्छा हो भी तो पहल करने की हिम्मत नहीं होती। इस तरहके भयसे मुक्त होना भी इस जंगी लड़ाईका एक महान् परिणाम होना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि धनिक-वर्ग हिम्मतसे राष्ट्रीय उन्नतिमें पूरा-पूरा भाग लेगा।

लेकिन कदाचित् धनिक-वर्गमें से किसी-किसीको निर्भयताके धर्मका पालन करना कठिन जान पड़े तो भी मैं उनसे यह उम्मीद तो करूँगा ही कि वे दयाधर्मका परित्याग नहीं करेंगे। अकालग्रस्त लोगोंके लिए जो मदद दी जानी चाहिए वह तो अवश्य देंगे। जब प्लेगका भीषण प्रकोप था, जब अकाल पड़ा था तब धनिक-वर्गने पैसा देनेमें कोई कसर उठा नहीं रखी थी। अगर वे कुछ भी नहीं कर सकते तो अन्तमें मैं उनसे प्रार्थना करता हूँ कि वे कमसे कम अकाल निवारणके दायित्वको अपने कन्धोंपर उठा लें।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २९-५-१९२१