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“अफगानी हमलेका हौआ” पर लेख लिखते समय मेरे मनमें केवल दो बातें थीं: एक तो अपने साथीके सही खयालोंका समर्थन करना और दूसरे, स्वार्थ-साधकोंकी चिल्ल-पोंके डरसे देशवासियोंको आगाह करना।

मैं पाल महाशयकी इस बातको बिलकुल नहीं मान सकता कि अफगानोंने हमला कर दिया या उनके हमलेकी महज अफवाह ही उड़ा दी गई तो हमारी मुसलमान आबादीका काफी बड़ा हिस्सा, अगर ‘बागी’ न हुआ तो कमसे कम गैरकानूनी हरकतें तो करने ही लगेगा। उलटे मेरा तो यह पक्का विश्वास है कि हिन्दुस्तानका मुसलमान इस बातको बहुत अच्छी तरह जानता है कि आज अगर उसने इस तरहकी कोई बेवकूफी की तो उसका दीनो-ईमान खतरेमें पड़ जायेगा। जैसा कि मौलाना शौकत अली अक्सर कहते रहे हैं, मुसलमान इतने बेवकूफ नहीं हैं कि अहिंसाकी आड़में हिंसा करने लगें। पाल महाशयने यह कहकर कि “हिन्दुओंकी काफी बड़ी संख्या मुसलमानोंसे अपना हिसाब चुकता कर लेना चाहती है” हिन्दुओंके साथ घोर अन्याय किया है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उन्होंने हिन्दुओंके विचारोंको समझनेमें सरासर गलती की है। हिन्दुओंको गायकी रक्षाकी उतनी ही फिक्र है जितनी कि मुसलमानोंको खिला फतकी। और हिन्दू इस बातको भी बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि गोरक्षाकी उनकी चिर अभीप्सित आकांक्षा मुसलमानोंकी सहायता के बिना कभी पूरी नहीं हो सकती। मैं दावेके साथ कह सकता हूँ कि जिस प्रकार मुसलमानोंको गोरक्षाके मामले में मदद करते देख हिन्दू उनकी सभी पुरानी गलतियों और गुनाहोंको भूल जायेंगे ठीक उसी तरह हिन्दुओंको इस्लामकी सम्मान-रक्षामें खुशी-खुशी हाथ बँटाते देखकर मुसलमान भी उनके हमेशा के लिए शुक्रगुजार हो जायेंगे।

श्री विपिनचन्द्र पालकी इस धारणाको माननेके लिए मैं कदापि तैयार नहीं हूँ कि मुसलमान और हिन्दू अफगानोंके हमलेका स्वागत करेंगे। मौलाना मुहम्मद अलीके कल्पित इरादोंका जैसा विरोध हुआ है उससे तो हर किसीको यह विश्वास हो जाना चाहिए कि भारत कभी अफगानी हमलेको बरदाश्त नहीं करेगा।

पाल महाशयका ऐसा विचार है कि अगर अमीरने हमला किया और हमने सरकारकी मदद नहीं की तो यहाँ क्रांति हो जायेगी। मेरा खयाल कुछ दूसरा है। अगर असहयोग-रत भारतने मदद नहीं की तो सरकार यहाँ की जनतासे समझौता कर लेगी। मैं अंग्रेजोंको इतना नासमझ और बिना सूझबूझवाला नहीं मानता कि वे खिलाफत और पंजाबके घाव भरकर भारतसे समझौता करनेके बदले इसे छोड़कर चले जायेंगे। मगर मैं इस बातको भी बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि अभी भारत उतनी ताकत अपने में पैदा नहीं कर पाया है कि दूसरोंको उसकी बातपर ध्यान देना ही पड़े। मैंने तो सिर्फ एक सम्भावनाकी ओर इशारा किया है।

पाल महाशयको लालाजीकी[१] और मेरी शिमलावाली घोषणा और उससे पहले वाली घोषणाओंमें फर्क दिखाई देता है। लेकिन मुझे तो दोनोंमें कोई फर्क नजर नहीं आता; मैंने अथवा लालाजीने कभी यह नहीं कहा कि हम अफगानी हमलेका स्वागत

  1. लाला लाजपतराय।