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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


कि मैं तो जीवन-भर नारियोंकी पूर्ण मुक्तिके लिए लड़ता रहा हूँ; और तब वे मेरे साथ ऐसा अन्याय न करते जैसा कि, मैं जानता हूँ, वे जान-बूझकर तो अपने बड़ेसे बड़े शत्रुके साथ भी नहीं करेंगे। कविको शायद यह मालूम नहीं है कि आज अंग्रेजी सिर्फ अपने व्यापारिक और तथाकथित राजनैतिक महत्त्वके कारण ही पढ़ी जाती है। हमारे लड़के-बच्चे बिलकुल ठीक ही सोचते हैं कि आजकी परिस्थितियोंमें अंग्रेजी पढ़े बिना उन्हें सरकारी नौकरियाँ नहीं मिल सकतीं। लड़कियोंको शादीके परवानेके तौरपर अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। मैं ऐसी बहुत-सी औरतोंको जानता हूँ जो सिर्फ अंग्रेजोंसे बात करनेके ही लिए उसे सीखना चाहती हैं। मैं ऐसे पतियोंको भी जानता हूँ जिन्हें इस बातका मलाल है कि उनकी बीवियाँ उनसे और उनके दोस्तोंसे अंग्रेजी में बात नहीं कर पातीं। मैं ऐसे परिवारोंको भी जानता हूँ जहाँ अंग्रेजीको मातृभाषा बनाया जा रहा है। सैकड़ों नौजवानोंका ऐसा विश्वास है कि अंग्रेजीके ज्ञानके बिना भारत स्वतन्त्र हो ही नहीं सकता। यह बीमारी समाजमें इतनी गहरी पैठ चुकी है कि आम तौरपर शिक्षाका मतलब अंग्रेजीके ज्ञानसे ही लगाया जाता है। मैं इन सब बातोंको हमारी गुलामी और अधःपतनका लक्षण मानता हूँ। देशी भाषाओंका इस तरह कुचला, दबाया और वंचित रखा जाना मैं बरदाश्त नहीं कर सकता। न मैं यही बरदाश्त कर सकता हूँ कि माता-पिता अपने बच्चोंको या पति अपनी पत्नियोंको अपनी भाषाको छोड़ कर अंग्रेजीमें पत्र लिखें। मैं अपने-आपको खुली हवाका उतना ही बड़ा उपासक मानता हूँ जितना कि कवि स्वयंको समझते हैं। मैं अपने घरको चारों ओरसे दीवारोंसे घेर नहीं लेना चाहता और न खिड़कियोंको बन्द कर रखना चाहता हूँ। मैं तो चाहता हूँ कि सब देशोंकी संस्कृतियाँ मेरे घरके चारों ओर अधिकसे-अधिक निर्बाध रूपसे प्रवाहित हो सकें। अलबत्ता मैं यह कभी नहीं चाहूँगा कि उनके तेज झोके मेरे पाँव ही उखाड़ दें। मैं किसी दूसरेके घरमें एक अवांछनीय मेहमान, भिखारी या गुलाम के रूपमें रहना भी बरदाश्त नहीं करूँगा। मैं अपनी बह्नोंपर झूठी शान और सन्दिग्ध सामाजिक लाभके लिए अंग्रेजीकी पढ़ाईका बोझा लादनेको बिलकुल तैयार नहीं हूँ। साहित्य में रुचि रखनेवाले हमारे युवक और युवतियाँ खुशीसे अंग्रेजी और विश्वकी अन्य भाषाएँ सीखें और बसु, राय अथवा स्वयं कविकी भाँति अपने ज्ञानसे भारत और विश्वको लाभान्वित करें। मुझे इससे अपार प्रसन्नता ही होगी। लेकिन मैं इसे कभी ठीक नहीं मान सकता कि हिन्दुस्तानी अपनी मातृभाषाको भुला दे, उसकी उपेक्षा करे, उसके लिए लज्जित हो या यह महसूस करे कि वह अपने उत्कृष्ट विचारोंको अपनी भाषामें व्यक्त नहीं कर सकता। मेरा धर्म जेलकी तंग कोठरी-जैसा संकुचित और अनुदार नहीं है। इसमें तो भगवान्‌की सारी सृष्टिके लिए स्थान है। लेकिन अविनय, जाति, धर्म अथवा वर्ण-गत अहंकारके लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। मुझे इस बातका हार्दिक दुःख है कि कविने सुधार, शुद्धीकरण और मानवतामें प्रति- फलित होनेवाली देशभक्तिके इस महान् आन्दोलनके अभिप्रायको गलत समझ लिया। अगर वे धीरज रखें तो वे देखेंगे कि उन्हें अपने देशवासियोंके कारण लज्जित या दुःखित नहीं होना पड़ा है। मैं विनयपूर्वक कविको सचेत किया चाहता हूँ कि वे आन्दोलनकी विकृतियोंको ही आन्दोलन समझनेकी भूल न करें। लन्दनमें विद्यार्थियोंके