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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उचित समयकी प्रतीक्षा करनी चाहिए। पर हिन्दुस्तान के सामने हिंसा और असहयोग इन दोमें से किसी एकको चुननेके अलावा कोई मार्ग नहीं रह गया था।

रवीन्द्रबाबूको इस बातकी भी शंका नहीं करनी चाहिए कि असहयोग आन्दोलन भारतवर्षं तथा यूरोपके बीच एक बड़ी दीवार खड़ी करना चाहता है। इसके विरुद्ध असहयोग आन्दोलनका मन्शा यह है कि पारस्परिक सम्मान और विश्वासकी बुनियाद पर बिना किसी दबाव के सच्चे, स्वैच्छिक तथा सम्मानपूर्ण सहयोगके लिए जमीन तैयार की जाये। वर्तमान संघर्ष विवशतापूर्ण सहयोग, एकतरफा गठजोड़े और सभ्यताके नामपर किये जा रहे शोषणके आधुनिक तरीकोंको सशस्त्र ढंगसे थोपनेके विरुद्ध चलाया जा रहा है।

असहयोग आन्दोलन इस बात के विरोध में किया गया है कि बिना हमारी इच्छा और जानकारीके हमसे बुराईमें सहयोग कराया जा रहा है।

रवीन्द्रबाबूको अधिकतर चिन्ता विद्यार्थियोंके बारेमें है। उनका मत है कि जबतक दूसरे स्कूल न खुल जायें तबतक उनसे सरकारी स्कूल छोड़नेको न कहा जाये। इस बातपर मेरा उनसे मतभेद है। मैंने कोरी साहित्यकी शिक्षाको कभी परम आवश्यक नहीं समझा है। अनुभवसे मुझे यह मालूम हो गया है कि अकेली साहित्य-शिक्षासे मनुष्यके चरित्रकी रत्ती भर भी उन्नति नहीं होती और चरित्र-निर्माणसे साहित्यकी शिक्षाका कोई सम्बन्ध नहीं है। मेरा पक्का विश्वास है कि सरकारी स्कूलोंने हमें बुजदिल, लाचार और अविश्वासी बना दिया है। जिसके सबबसे हमारे हृदयमें असन्तोष तो उत्पन्न हो गया है पर उस असन्तोषको दूर करनेके लिए कोई दवा हमें नहीं बत लाई गई। इससे हमारे हृदयों में निराशाने घर कर लिया है। सरकारी स्कूलोंका उद्देश्य हमें क्लर्क और दुभाषिया बनाना था और वह उद्देश्य पूरा हुआ है। किसी सरकारकी प्रतिष्ठा तभी कायम रहती है जब प्रजा स्वयं अपनी इच्छासे उस सरकारसे सहयोग करती है। अगर सरकार हमें गुलाम बनाये हुए है और ऐसी सरकारके साथ सहयोग करना और उसे सहायता देना अनुचित है तो हमारे लिए यह जरूरी है कि हम उन संस्थाओंसे अपना नाता तोड़ लें जिनमें हम स्वयं अपनी इच्छासे अबतक सहयोग देते रहे हैं। राष्ट्रकी आशाका आधार उसके नौजवान ही होते हैं। मेरा मत है, अगर हमें इस बातका पता लग गया है कि यह सरकार पूरी तरहसे या मुख्यतः बुराईसे भरी हुई है तो अपने लड़कोंको उसके स्कूलों और कालेजोंमें भेजना हमारे लिए पाप होगा।

मैंने जो प्रस्ताव रखा है उसका खण्डन इस बातसे नहीं होता कि अधिकतर विद्यार्थी प्रारम्भिक जोश ठण्डा होते ही अपने स्कूलोंमें फिर वापस चले गये। उनका अपनी बातसे टल जाना इस बातका सबूत नहीं है कि हमारा यह प्रस्ताव गलत है, बल्कि वह इस बात का सबूत है कि हम किस कदर गिर गये हैं। अनुभव यह बताता है कि राष्ट्रीय स्कूलों के खुलनेपर बहुत ज्यादा विद्यार्थी उनमें भरती नहीं हुए। जो विद्यार्थी सच्चे और अपने विश्वासके पक्के थे वे बिना कोई राष्ट्रीय स्कूल खुले सरकारी स्कूलोंसे बाहर निकल आये। मेरा पक्का विश्वास है कि जिन विद्यार्थियोंने पहले-पहल स्कूल-कालेज छोड़े हैं उन्होंने देशकी बहुत बड़ी सेवा की है।