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मालूम पड़ता है। यह बात भी मंजूर की गई है कि मालिकोंने मजदूरीकी दरें कम कर दी हैं। श्री दास और श्री एन्ड्रयूज दोनोंका यही कहना है कि झगड़ा शुद्ध रूपसे आर्थिक है और सचमुच कुलियोंकी कई शिकायतें भी हैं। यह भी मानना ही होगा कि पुनर्गठित सरकार इस मसलेको हल करनेमें नाकामयाब रही है। यह बात भी मेरे देखने में आई है कि ‘टाइम्स आफ इंडिया’ अखबारने इस झगड़ेका बहुत ही बेजा इस्तेमाल किया, और भारत में ब्रिटिश व्यावसायिक हितोंसे दुश्मनीका आरोप इसके मत्थे मढ़ दिया है। असहयोगियोंपर नफरतका मनगढ़न्त आरोप लगानेका तो जैसे रिवाज ही हो गया है। मैं इस सचाईपर पूरा जोर देना चाहता हूँ कि एक असहयोगने ही जातियों के आपसी झगड़ों और दंगोंको रोका है और आम जनताके गुस्सेको उचित दिशामें मोड़ा है। जाति- विशेषसे सम्बन्धित होनेके ही कारण किसीके हितको हानि पहुँचाना असह्योगका उद्देश्य नहीं है। उसका उद्देश्य है हर एक निहित स्वार्थको उसके हानिकारक और अपवित्र तत्त्वोंसे मुक्त करना। अन्याय या पशुबलपर आधारित, या भारत के विकास के प्रतिकूल हर ब्रिटिश या भारतीय हित आज बिला शक खतरे में है। सार्वजनिक सद्भावनाके बदले महज पशुबलपर आधारित कोई भी हित आज असहयोगकी आँचसे बचा नहीं रह सकता। असमके बागानोंके मालिक अगर भारतीय मजदूरोंके शोषणपर पोषित नहीं हैं तो उन्हें डरनेकी कोई जरूरत नहीं। समय आ रहा है जब अनाप-शनाप मुनाफा किसी भी तरह नहीं कमाया जा सकेगा। बड़े कारबार के मुनाफों और वहाँके मजदूरोंकी तनख्वाहोंमें जमीन-आसमान- का अन्तर नहीं होना चाहिए। मैं ये दो टूक बातें इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं विश्वासपूर्वक जानता हूँ कि असहयोगको संगीनोंसे दबाया नहीं जा सकता। उसने भारतीयोंके दिलोंमें अपना सुरक्षित स्थान बना लिया है। मेरे जैसे कार्यकर्त्ता अपना समय आनेपर चले जायेंगे लेकिन असहयोग तो फिर भी रहेगा। मैं समझता हूँ कि अभीतक भारतीय मजदुरवर्ग इतना प्रबुद्ध नहीं हो पाया है कि पूँजी और श्रमके पारस्परिक रिश्तेको न्यायपर आधारित करके उसे निभा सके। लेकिन वह समय आ रहा है ― हमारी कल्पनासे कहीं तेज गतिसे आ रहा है। मैं आशा करता हूँ कि पूँजीपति, चाहे वे यूरोपीय हों या भारतीय, इस नई जागृति और नई शक्तिको जो हमारे बीचमें उभर रही है परखेंगे-समझेंगे।

मंजूरीके काबिल नहीं

कुछ अखबारोंने अली बन्धुओंकी सफाईको जेलकी तकलीफोंसे जान बचानेवाले कमजोर आदमीका माफीनामा समझनेकी भूल की है, इसलिए उन्होंने यह सुझाव दिया है कि जेलकी सजा काट रहे दूसरे राजनैतिक बन्दियोंसे भी सरकारको इसी तरहका वचन लेकर उन्हें रिहा कर देना चाहिए। कोई भी सच्चा असहयोगी सरकारको किसी भी तरहका वचन देकर जेलसे नहीं छूट सकता और न छूटना चाहेगा। प्रायः सभी राजनीतिक बन्दियोंने हिंसाके इरादेसे इनकार करते हुए अपने-आपको निर्दोष बतलाया है। अली बन्धु दण्डित हो जानेपर भी अपना यह बयान तो जरूर ही देते, इस बयानसे उनका जेल जाना रुक नहीं सकता था। इस तरहका