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९१. वाइसरायका भाषण

वाइसराय महोदयने शफी साहबके भाषणको ‘भोजनके बाद की वक्तृता’ कहा है। जो बात उन्होंने शफी साहबके भाषण के बारेमें कही है ठीक वही उनके अपने भाषणके बारेमें भी कही जा सकती है। मेरे विद्यार्थी कालमें इंग्लैंड के विभिन्न प्रधान मन्त्रियोंके जो तथाकथित ऐतिहासिक भाषण मैन्शनहाउसमें हुआ करते थे, मैं उनका काफी बारीकी से अध्ययन किया करता था। वे भाषण हमेशा ही मुझे कुछ अवास्तविकतापूर्ण लगा करते थे। और वाइसराय महोदय के भाषणको ध्यानसे पढ़नेके बाद मुझे यह कहते हुए दुःख होता है कि उसमें भी वैसी ही अवास्तविकता दिखाई देती है। इसका यह मतलब नहीं कि लॉर्ड रीडिंगने जान-बूझकर अपने उस भाषण में अवास्तविकताका पुट दिया है। इसके विपरीत उन्होंने तो आस लगाये बैठे भारतको एक सच्चा सन्देश देनेकी ही कोशिश की है, जो उनके भाषणसे साफ झलकता है। लेकिन मेरी विनम्र रायमें उन्हें सफलता नहीं मिली, क्योंकि वाइसरायके पदपर आसीन होनेके कारण उनकी कुछ अपनी सीमाएँ हैं। उदाहरणार्थ वे भी अपने पूर्ववर्तियोंके समान इस परम्परागत दावेसे ऊपर नहीं उठ सके कि ब्रिटिश शासक कभी गलती कर ही नहीं सकता। उन्होंने यह मत प्रतिपादित कर दिया कि “निःसन्देह भारतमें रंगगत असमानताका कोई भी चिह्न नहीं हो सकता और न होना चाहिए”। भारतीयोंको ऐसा मत वास्तविकतासे कितना परे लगता है यह कहनेकी जरूरत नहीं; हमारा दीर्घकालीन अनुभव तो इसकी ठीक उलटी बात ही जाहिर करता है। औसत अंग्रेज के लिए जातीय श्रेष्ठता मनका एक आवेग, बल्कि कहना चाहिए कि धर्म बन गया है। और वह इसे छिपाने की कोई कोशिश भी नहीं करता। अन्य उपनिवेशोंकी तरह भारतमें भी अंग्रेज अपनी इस वृत्तिको हमारे ऊपर थोपे रहता है। यहाँतक कि कानून में भी इस जातीय श्रेष्ठताको स्थान दिया गया है। पहलेकी बहुत-सी असफलताओं- को वाइसरायने अपने भाषण में कहीं भी खुले दिलसे स्वीकार नहीं किया है। इसीलिए उसमें नया अध्याय आरम्भ करनेकी, नये सिरेसे काम करनेकी सहज आकांक्षाका अभाव दिखाई देता है। मेरी विनम्र रायमें, वाइसराय महोदयने ‘ब्रिटिश राज्यके बुनियादी सिद्धान्त’ के बारेमें जैसी अनुपयुक्त बात कही है लेकिन उससे भी कहीं गई-बीती बात उन्होंने मौलाना मुहम्मद अली और मौलाना शौकत अलीके बारेमें कही है। मैं इस बातको मंजूर करता हूँ कि अपने भाषण में उन्होंने सावधानी तो बहुत ही ज्यादा बरती है। किसीकी भावनाओंको चोट न पहुँचे, इसकी उन्होंने पूरी कोशिश की है। लेकिन वास्तवमें देखा जाय तो भावनाओंको चोट पहुँचानेका कोई प्रश्न ही नहीं है। यदि अली बन्धुओंने गलती की होती तो उनको माफ करनेकी कोई जरूरत नहीं थी। अली बन्धुओंसे वह बयान तो मैंने दिलवाया था; केवल मेरी ही प्रेरणासे वह दिया गया था। वह सफाई दोस्तोंको दी गई है, सरकारको नहीं। और उस बयानका मंशा दण्डसे