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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उसका आदर्श भारत के आदर्शसे सर्वथा भिन्न है। स्वर्गीय लोकमान्य तिलकने बिलकुल ठीक कहा था ― स्वराज्य भारतका जन्मसिद्ध अधिकार है। इतने लम्बे समयतक भारतको उसके इस जन्मसिद्ध अधिकारसे वंचित रखा गया है। इसलिए अब यदि वह व्यग्र हो उठे तो इसमें आश्चर्य ही क्या!

लॉर्ड रीडिंगने इस मन्तव्यको पढ़ा और सुना ही होगा और अब वे इसकी सचाई के भी कायल हो जायेंगे कि सरकारका कोई भी काम दिखनेमें कितना ही अच्छा क्यों न हो, अगर उससे हालतमें पूरा सुधार नहीं होता तो कमसे-कम असहयोगी तो उसपर बुरी नीयतका आरोप लगायेंगे ही और यही कहेंगे कि वह काम भारतकी गुलामीको काफी लम्बे अर्सेतक बनाये रखने के लिए ही किया गया है। आज ब्रिटिश राज कलंकित हो गया है, उसपर सन्देह किया जाने लगा है। जलियाँवालाके बेगुनाह लोगों के खूनसे उसके हाथ रँगे हुए हैं और इस्लाम के प्रति विश्वासघात के कलंक-का टीका उसके माथेपर लगा हुआ है। जिस प्रकार जहरके कटोरेमें भरे शुद्ध दूधको भी हर समझदार आदमी जहर ही समझता है, उसी तरह ब्रिटिश सरकारके हर कामको उसके पहले किये हुए कामोंकी रोशनी में ही देखा-परखा जायेगा। भारतकी बेचैनीको मिटाने का सिर्फ एक ही तरीका है, बेचैनी के कारणोंको मिटाइए। पद या सुविधाओंकी मिठाससे कड़वाहटको ढँकनेसे कुछ न होगा। पद और सुविधायें लुभावने हो सकते हैं पर हैं बेमतलब ही, अगर उनसे बेचैनीके मूल कारणोंको कारगर ढंगसे मिटाया नहीं जा सकता।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ८-६-१९२१

९२. पत्र : नरमदलीय भाइयोंको

प्रिय मित्रो,

मैंने जिन लोगों से काम करनेकी शिक्षा पाई है, वे ‘माडरेट’ या नरमदलीय ही माने जाते हैं। मैं उन्हींकी संगतिमें रहा हूँ। इसलिए अब यह देखकर मेरे मनको बड़ा सन्ताप होता है कि मेरे विचार आप ‘माडरेट’ भाइयोंसे भिन्न पड़ने लगे हैं। कुछ तो परिस्थितियोंके कारण और कुछ अपने स्वभावके कारण, मैं देशके किसी भी बड़े दल में कभी शामिल नहीं रहा। पर मेरे जीवनको गरम दलके लोगोंकी अपेक्षा नरम दलके लोगोंने ही अधिक प्रभावित किया है। दादाभाई नौरोजी, गोखले, बदरुद्दीन तैयबजी[१], फीरोजशाह मेहता[२] सभी नाम देशके लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

  1. १८४५-१९१५; सन् १८६८ में वैरिस्टरीकी परीक्षा पास करनेवाले प्रथम पारसी भारतीय। सन् १८७२ से १९१५ तक बम्बई कारपोरेशनके सदस्य ३० सालतक बम्बई विधान परिषद् के सदस्य; कांग्रेसके जन्म से ही उससे सम्बद्ध; १८९० और १९०९ में कांग्रेसके अध्यक्ष।
  2. १८४४-१९०६; न्यायाधीश, विधान सभाके सदस्य; १८८७ में मद्रास कांग्रेस अधिवेशनके अध्यक्ष।