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गुजरातका कर्त्तव्य


इसीलिए पैसा दिया भी नहीं। उसकी नजर हमेशा बम्बईकी ओर रही है और इसीसे गुजरातको अपनेपर विश्वास नहीं है। वीरमगाँव सिर्फ बारह हजार देकर ही कैसे सन्तोष मान सकता है? बढवान सिर्फ छः-सात हजार देकर ही कैसे सन्तुष्ट रह सकता है? यह सब सार्वजनिक कार्योंके प्रति हमारी कंजूसीकी निशानी है। तथापि एक समय ऐसा था कि जब बढवान अथवा वीरमगाँवमें इतना पैसा इकट्ठा करना भी मुश्किल था। वीरमगाँव तथा बढवानमें अगर इतना मिला है तो और भी मिलेगा; और इसी तरह अन्य स्थानोंसे भी मिलेगा। प्रत्येक बड़े शहरको दान देनेकी अपनी क्षमताकी जाँच करके चन्दा उगाहना चाहिए। मित्रवर्गकी सलाह लेकर मैंने जो नियम निर्धारित किये हैं उन्हें तो लागू कर ही दिया जाना चाहिए।[१] वेतनभोगी कोई भी व्यक्ति अपने मासिक वेतनका दस प्रतिशतसे कदापि कम न दे। अधिक वेतन पानेवाला अपनी ओरसे अधिक रकम देकर कम वेतन पानेवालोंकी मदद करे। व्यापारी, वकील, डाक्टर आदि अपनी कमाईके बारहवें भागसे कम न दें। और फिर प्रथम कोटिके डाक्टर, वकील आदिके लिए ये आँकड़े किस कामके? कोई वकील यदि वर्षके ६०,००० रुपये कमाता है तो क्या वह अपने हिस्से के पाँच हजार रुपये देकर ही सन्तोष मान ले? श्री दास[२] सार्वजनिक कार्योंमें अपनी कमाईका आधा भाग देनेमें आगा-पीछा नहीं देखते थे। जब वकीलोंके धन्धा छोड़नेकी बात उठी तब उन्होंने खुशी-खुशी अपनी कमाईका आधा भाग देनेकी घोषणा की थी। तात्पर्य यह कि ऐसे वकील स्वयं बहुत सारी रकम देकर मनसे कमजोर अपने दूसरे भाइयोंकी, जो उनकी अपेक्षा कम समर्थ हैं, मदद करें। ब्याजपर ही निर्वाह करनेवाला साहूकार अगर अपनी सम्पत्तिका ढाई प्रतिशत दे तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है? जिस व्यक्तिके पास एक लाख रुपयेका मकान है अगर वह ढाई हजार रुपया दे तो उसमें वह कौन ज्यादा रकम देता है? सैकड़े पीछे ढाई रुपया देना तो ज्यादासे ज्यादा छ: महीनेका ब्याज हुआ। अनेक लोग तो सौ रुपयेकी सम्पत्तिका भाड़ा अथवा व्याज वार्षिक पाँच प्रतिशत न लेकर बारह प्रतिशत लेते हैं। उनके लिए ढाई रुपये तो ढाई महीनेका ही ब्याज हुआ। इस तरह विचार करनेपर हम गुजरातके शहरोंसे ही तीस जूनसे पहले-पहले सहज ही दस लाख रुपया इकट्ठा कर सकते हैं। शक्ति, इच्छा और कार्यदक्षताकी त्रिवेणी मिल जाये तो गुजरात बहुत ज्यादा प्रयत्न किये बिना ही अपनी प्रतिज्ञाको पूरा कर सकेगा। भगवान् गुजरातकी सहायता करे।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, १२-६-१९२१

  1. देखिए “टिप्पणियाँ”, ८-६-१९२१।
  2. ित्तरंजन दास।