पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/२४७

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अपनी उचित मांगोंमें जरा-सी भी कमी करनेको तैयार नहीं है, और उन माँगोंको पूरा करानेके लिए जनता सिर्फ अपनी ही ताकतपर निर्भर रहना चाहती है।

मेरी इस सलाहकी और अली बन्धुओं द्वारा उसे स्वीकार करनेकी भर्त्सनामें प्राप्त सबसे जोरदार दलीलवाले पत्रके कुछ सम्बद्ध अंश यहाँ दिये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त यह पत्र एक बहुत बड़े असहयोगी नेताने लिखा है। यह पत्र प्रकाशनके लिए नहीं भेजा गया है। लेकिन मैं जानता हूँ कि उसे यहाँ छापनेमें लेखकको कोई खास आपत्ति भी न होगी; क्योंकि मुझे मालूम है कि ऐसे विचार अकेले उन्हींके नहीं और भी कई विचारशील असहयोगियों के हैं। इस प्रसंगको लेकर जो सवाल पैदा हो गये हैं, उनपर और असहयोगके फलितार्थोपर विचार करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। शान्तिसे अपनी बात कहकर ही मैं असह्योगकी सचाई, खूबी और औचित्यको समझानेकी आशा कर सकता हूँ। तो उस पत्रके कुछ अंश इस प्रकार हैं:

अली बन्धुओं वक्तव्यको अगर पूर्व-परिस्थितियोंसे अलग करके पढ़ा जाये तो अपने-आपमें वह एक शानदार वक्तव्य है। किसी क्षण जोशमें आकर अगर वे ऐसी बातें कह गये हों, जिनके बारेमें बादमें उन्हें लगता है कि इनमें किसीको हिंसा भड़कानेवाली प्रवृत्तिका आभास मिल सकता है, तो उसके लिए खेद प्रकट करके उन्होंने अपने स्तरके सार्वजनिक नेताओंके सम्मानके योग्य ही कार्य किया है। भविष्यके लिए उन्होंने जो आश्वासन दिया है, उसे भी मैं सर्वथा उचित समझता, यदि यह आश्वासन उन्होंने अपने उन सहकर्मियोंको दिया होता, जो उनके विपरीत, किसी भी स्थिति में हिंसा में विश्वास नहीं करते हैं। लेकिन उन्होंने जिस शब्दावलीका प्रयोग किया है, वह इस प्रकार है: “जो ऐसा चाहते हैं उन सभीको सार्वजनिक रूपसे आश्वासन और वचन” आदि। सभीपर लागू होनेवाली ऐसी गोलमोल शब्दावलीके प्रयोगसे इस बातके सम्बन्धमें किसीको भी कोई भ्रम नहीं हो सकता कि वास्तव में किस पक्ष-विशेषको ऐसे “आश्वासन और वचन” की आवश्यकता थी और किसके आदेशपर यह आश्वासन और वचन दिया गया है। वाइसरायके भाषणसे तो रहा-सहा सन्देह भी पूरी तरह जाता रहा और हमें यह बात निर्विवाद रूपसे मालूम हो गई कि असहयोग आन्दोलनका नेता सरकारसे बातचीत चला रहा था और उसीने अली बन्धुओंको सार्वजनिक रूपसे सफाई और आश्वासन देनेके लिए प्रेरित करके उन्हें गिरपतारीसे बचाया।
मैं इस मामलेको किसी और दृष्टिसे देख नहीं पा रहा हूँ और इस दृष्टिसे देखनेपर तो समूचे आन्दोलनसे सम्बन्धित कई अन्य गम्भीर प्रश्न विचारार्थ उपस्थित हो जाते हैं। दरअसल मुझे तो लगता है कि असहयोगके पूरे सिद्धान्तको ही तिलांजलि दे दी गई है।
मैं न तो उन लोगों में से हूँ जो सरकारके नामसे ही कतराते हैं, और न उन लोगों में से ही जो हमारी सारी शिकायतोंका एकमात्र हल और स्वराज्य-