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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


लिया जाये। अली बन्धुओंके भाषणोंको देखते ही उनकी प्रामाणिकता और आन्दोलनके अहिंसात्मक रूपको साबित करनेकी गरजसे मैंने खुद ही कहा कि मैं उन्हें बयान देनेकी सलाह दूंगा। उनकी आजादी के लिए सौदेबाजी करनेका कोई सवाल ही नहीं था। उनके भाषणोंकी ओर मेरा ध्यान दिलाये जानेके बाद मैं उन्हें (अगर मुझसे बनता तो) हिंसा भड़काने के स्पष्ट आरोपके आधारपर तो कभी जेल जाने नहीं दे सकता था। जिन लोगोंपर ऐसा आरोप लगाया गया है, उनमें से सभीको मैंने यही सलाह दी है और कहा है कि अगर उनके भाषण हिंसात्मक हों तो उन्हें जरूर अफसोस जाहिर करना चाहिए। असहयोगी इसके सिवा दूसरा कुछ कर भी नहीं सकता। अदालतमें अली बन्धुओंपर मुकदमा चलनेकी सूरत में मैं उन्हें अपने भाषणोंके उन अंशोंके लिए अदालतसे माफी माँगनेकी सलाह देता जो मेरे विचारसे ऐसे हैं जिनके बारेमें यह सोचा जा सकता है कि इनके पीछे हिंसा भड़कानेका मंशा था। हिंसाका मंशा न रखना ही असहयोगी के लिए काफी नहीं होता बल्कि यह भी जरूरी है कि कोई भी समझदार आदमी उसके भाषणका वैसा मतलब न लगा सके। हमारा व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि हमारे ऊपर कोई अँगुली न उठा सके। इस आन्दोलनकी सारी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह सर्वथा निष्कलंक बना रहे। इसलिए पत्र-लेखक और उनकी तरह सोचनेवाले दूसरे लोगोंसे मैं यही कहूँगा कि असहयोग के पूरे सिद्धान्तको, जैसा कि उनका खयाल है, “तिलांजलि नहीं दी गई है” बल्कि अली बन्धुओंकी सफाईसे उसके अहिंसात्मक रूपकी पुष्टि ही हुई है और इस तरह हमारा पक्ष ज्यादा मजबूत हो गया है।

आजाद कौन है?

लेकिन लेखकको असल दुःख इस बातका है कि जहाँ अली बन्धु आजाद हैं, वहाँ दूसरे सामान्य कार्यकर्त्ता उनसे कहीं कम कड़ी बातें कहनेके लिए जेलोंमें पड़े हुए हैं। एक इसी बातसे असहयोग के असली स्वरूपका पता चल जाता है। असहयोगी अपनी सुरक्षा के लिए सौदेबाजी नहीं कर सकता, न उसे करनी चाहिए। मैं दूसरोंकी मुक्ति के लिए सौदेबाजी करनेके लिए स्वतन्त्र था। लेकिन अगर ऐसा करता तब तो असहयोग जिन सिद्धान्तोंकी नींवपर खड़ा है मैंने उन्हींका त्याग कर दिया होता। इसलिए मैंने अली बन्धुओंतक की मुक्तिके लिए सौदेबाजी नहीं की। बिलकुल साफ- साफ शब्दोंमें मैंने यही कहा कि सरकार जो चाहे करे, मेरा कर्त्तव्य तो अली बन्धुओंसे मिलने पर उन्हें यही सलाह देना होगा कि अपनी प्रतिष्ठाकी, अपनी प्रामाणिकताकी रक्षाके लिए वे वक्तव्य दें। हमें तो इस खेलको सरकार उसी भावसे इसमें ऐसा करेगी, इसकी मुझे

हर हालत में ईमानदारी

सचमुच खेलकी भावनासे ईमानदारीसे खेलना ही है, चाहे भाग ले या न ले। और सच बात तो यह है कि सरकार कोई उम्मीद भी नहीं है। जब मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि सरकार में ईमान नहीं है, तभी मैंने असहयोग किया। लॉर्ड रीडिंगकी सचाई और न्यायपर चलनेकी इच्छा हो सकती है और है भी; मगर उन्हें चलने नहीं दिया