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असमका सबक


जाते हैं : शिक्षाका सारा खर्च निकल आता है; बच्चोंको दिमागी और शारीरिक दोनों तरहका प्रशिक्षण मिलता है, और विदेशी सूत और कपड़े के सम्पूर्ण बहिष्कारका रास्ता साफ हो जाता है। फिर जिन बच्चोंको इस तरीकेसे शिक्षा दी जायेगी वे अपने-आपपर भरोसा करनेवाले और आत्मनिर्भर भी होंगे। मैं तो पत्र लेखकको यही सलाह दूंगा कि वे अपने परिवारके हर सदस्यको कताई और बुनाईके द्वारा परिवारके भरण-पोषणमें मदद देने के लिए तैयार करें। शिक्षाकी मेरी योजनामें तो जो लड़का एक खास मात्रा में सूत नहीं कातता उसे शिक्षा पानेका भी कोई अधिकार नहीं। जो परिवार ऐसा करेंगे, उनकी आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान और इस लिहाजसे उनका रुतबा भी इतना बढ़ जायेगा जितना उन्होंने कभी सोचा तक नहीं होगा। इस योजनामें उच्च और बहुमुखी शिक्षा के लिए स्थान ही न हो, ऐसी बात नहीं है; उलटे यह पद्धति हर लड़के-लड़की के लिए उच्च और व्यापक शिक्षा सुलभ कर देती है। इसके अन्तर्गत साहित्यकी शिक्षाको उसका असली गौरव हासिल होता है, क्योंकि साहित्य शिक्षाको इसमें मुख्यतः मानसिक और नैतिक संस्कार देनेका साधन बना दिया गया है, और रोजी कमाना इसका गौण और अप्रत्यक्ष उद्देश्य माना गया है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १५-६-१९२१

१०५. असमका सबक

मनुष्यताके नामपर में बंगालकी सरकारपर यह आरोप लगाता हूँ कि उसने गरीबों को सताया। जहाँ दयाकी जरूरत थी वहाँ उसने हिंसाका सहारा लिया; जहाँ नर्मोकी जरूरत थी वहाँ उसने अपने गुरखा सिपाहियोंको झोंक दिया; जहाँ इन्सानियत चिल्ला-चिल्लाकर हमदर्दी और रहम माँग रही थी वहाँ इस सरकारने ऐसा किया कि अपने-आपको इन्सान कहलाने के काबिल नहीं रखा। और इतना ही नहीं, ये क्रूर अत्याचार करनेके बाद उसने अपने सूचनाधिकारियोंसे दैनिक अखबारोंमें उनको वाजिब ठहराने के लिए लेख आदि लिखनेको कहकर जलेपर नमक छिड़का है।

आज सिर्फ बंगालमें ही नहीं, सारे देशमें हालत यह है कि न सिर्फ बंगाल की बल्कि सारे हिन्दुस्तानकी सरकार गरीबों और मजलूमोंके खिलाफ, निहित स्वार्थी, पूँजीपतियों, अमीरों और ताकतवरोंका ज्यादासे ज्यादा साथ देने लगी है। यह बड़ा संगीन आरोप है। और यही वजह है कि यहाँके सभी गरीब लोग मुल्क के सबसे गरीब और गरीबोंकी मुसीबतों को समझनेवाले महात्मा गांधी के झण्डे तले आ जुड़े हैं। यही वजह है कि सरकार अब भी जो कुछ मदद दे सकती