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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


जिन लोगोंने मुझे घाटकोपरमें बुलाया है वे सबसे पहले अपना धर्म ठीक तरह से समझ लें। लोगोंको स्वराज्य देना मेरे हाथमें नहीं है; यह अली बन्धुओंके भी बसकी बात नहीं है। स्वराज्य तो लोगोंको खुद ही लेना है; यह काम उनको स्वयं ही करना है। यदि लोग जो भी काबुली या अंग्रेज उनके पास आये उन सभीसे डर जायें तो उनके लिए स्वराज्य प्राप्त करना कैसे सम्भव है? मेरी समझमें यह बात नहीं आती कि भारतीयोंको काबुलियों या यूरोपीयोंसे क्यों डरना चाहिए। वे हम भारतीयोंके भाई ही हैं। हम अपनी रक्षा करनेमें पूरी तौरपर समर्थ हैं; और यदि आवश्यक हो तो हम उनसे असहयोग भी कर सकते हैं। फिर हिन्दू लोग मुसलमानोंसे क्यों डरें और मुसलमान हिन्दुओंसे क्यों भयभीत रहें? यदि हम लोग ईश्वरसे डरते हैं और यदि हममें एकता है तो हम एक-दूसरेसे क्यों डरें? जबतक हममें आवश्यक उत्साह, सामर्थ्य और बल नहीं आता तबतक हम स्वराज्य नहीं ले सकते और न उसकी रक्षा ही कर सकते हैं। स्वराज्य और संसद या विधान सभाएँ एक बात नहीं हैं; हमें उनको अपने मनमें एक न मान लेना चाहिए। यदि हम अपने अधिकारोंकी रक्षा स्वयं नहीं कर सकते तो हमको वे अधिकार मिल ही नहीं सकते।

दुःखकी बात है कि बहुतसे हिन्दुओंने अपना धर्म छोड़ दिया है। मेरा पालन-पोषण एक वैष्णव परिवारमें हुआ था और अहिंसा मेरे रक्तमें समाई हुई है। दया और अहिंसा मेरे मनमें बसी हैं और में उन्हें कभी त्याग नहीं सकूँगा। इस सम्बन्धमें मुझे वैष्णवोंने कई धमकीभरे पत्र लिखे हैं। इसका कारण यह है कि मेरा सम्बन्ध दलित वर्गों से है। चूंकि मैंने अन्त्यजोंका साथ देना शुरू किया है इसलिए वैष्णवोंने मुझे इस आशयका पत्र लिखा है कि महीने दो महीने में तुम्हारे साथ बहुत भयंकर घटनाएँ घटेगी। इन लोगोंसे में साफ-साफ कहना चाहता हूँ कि यदि वैष्णव लोग अस्पृश्योंसे कोई सम्बन्ध रखना नहीं चाहते तो वे सच्चे वैष्णव नहीं हैं, बल्कि केवल अधर्मी और पापी लोग हैं। सच्चे वैष्णवका आदर्श यह नहीं है। जो लोग अस्पृश्योंको ऊँचा उठाना नहीं चाहते वे अधर्मी ही कहे जा सकते हैं। वैष्णव धर्ममें यह नहीं कहा गया कि हम किसीके प्राण ले लें या किसीको चोट पहुँचाएँ; वह तो दूसरोंके प्रति प्रेम और सहानुभूतिसे भरा पड़ा है। यही बात श्रावकों के सम्बन्धमें भी कही जा सकती है। ये लोग बेजुबान जानवरोंको खिलाने-पिलाने के लिए बिलकुल तैयार रहते हैं किन्तु अपने साथी मानवोंको, जो दुर्भाग्यसे भूखे मर रहे हैं, भोजन देना नहीं चाहते। इन श्रावकोंमें पशुओंके प्रति तो गहरा दयाभाव है किन्तु मनुष्योंके प्रति नहीं। क्या आप इसे धर्म कहते हैं? यदि वैष्णव धर्म अपने साथी मनुष्योंसे घृणा करना सिखाता है तो मैं उसे धर्म नहीं कह सकता, अलबत्ता धर्मकी भयंकर विकृति कह सकता हूँ। मैं वैष्णवोंसे हार्दिक अनुरोध करता हूँ कि उनके मनमें अस्पृश्योंके प्रति इस प्रकारका जो घृणाभाव है उसे वे निकाल फेंकें। मैं आपसे यह नहीं कहूँगा कि आप ढेढ़ों या भंगियोंके हाथका खाना खाने लगें। आपको यह समझ लेना चाहिए कि