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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


भी नहीं पी सकते, व्हिस्की और सोडा मिलाकर पीनेकी बात तो दूर रही। और क्या पारसियोंको अपनी मौजूदा पोशाक, जो एशियाई ढंगके बनिस्बत यूरोपीय ढंगकी अधिक है, छोड़कर अपने पूर्वजोंकी पोशाक, अर्थात् ऐसे पाजामे पहनने चाहिए जिनके पायेंचोंका घेर इतना होता है कि एक-एक में दर्जन भर मुर्गी के बच्चे समा जायें? इस तरह जमानेको ढकेलकर बिल्कुल पीछे ले जाना क्या सम्भव है? क्या श्री गांधी इन सवालोंका ऐसे जवाब देनेकी कृपा करेंगे जो लोगोंको सही लगें?

शिक्षा के मामले में पारसी सबसे आगे रहे हैं। उन्हें मौजूदा स्कूलोंसे अपने एक भी बच्चेको निकालनेकी जरूरत नहीं है। जरूरत सिर्फ इस बातकी है कि वे डिग्रियों के व्यामोहसे अपने-आपको मुक्त करें, वे चाहें तो अपने सभी स्कूलोंका सम्बन्ध आज ही सरकारसे तोड़ सकते हैं। उनके पास इतना पैसा है कि वे अपनी विशेष शिक्षाका व्यय स्वयं ही वहन कर सकते हैं। और अगर पारसी वकील वकालत छोड़ दें और राष्ट्रकी सेवा करनेमें हाथ न बँटाना चाहें तो मैं जानता हूँ कि उनमें इतनी सूझ-बूझ है कि वे व्यापार-व्यवसायमें आसानीसे लग सकते हैं, जो कि उनके हाथ की बात है। सुयोग्य पारसी वकीलोंके त्यागसे स्वयं पारसियोंका भी कल्याण होगा और राष्ट्रका भी। ऐसी आशा तो किसीसे नहीं की जाती, और खासकर पारसीसे तो कदापि नहीं, कि वह अपना अच्छी खासी कमाईका ऐसा धन्धा भी छोड़ दे जो किसी भी तरह सरकारकी प्रतिष्ठा कायम रखने में सहायक नहीं है और बदले में कताईका काम शुरू करे। लेकिन जिस किसी पारसी स्त्री या पुरुषके पास अवकाश है, उसे राष्ट्रके कल्याणके लिए उस अवकाशका उपयोग कताईके काममें करना चाहिए। इस तरह पारसियोंको अपने सोडेसे वंचित रहनेकी बात ही नहीं उठती। लेकिन जो शराब वगैरह पीते हैं, वे अगर पूरी तरह उसका त्याग कर दें तो इससे उनकी भी भलाई होगी और राष्ट्रकी भी। पारसियोंको अपनी मौजूदा पोशाकें भी नहीं छोड़नी हैं। सिर्फ इतना ही ध्यान रखना है कि वे पोशाकें हाथ-कते सूतसे हाथ-बुने कपड़ेकी बनी हों। लेकिन अगर वे अपने पूर्वजोंकी सादगीको फिरसे अपना लें तो उससे उनका कुछ नुकसान नहीं होगा। पुरानी पारसी पोशाक ऐसी थी जो भारतीय जलवायुको दृष्टिमें रखकर बनाई गई थी। यूरोपीय पोशाक भद्दी और भारतीय आबोहवाकी दृष्टिसे नितान्त अनुपयुक्त है। अंग्रेज भारतमें भी अपनी अलग-थलग बने रहनेकी प्रवृत्ति और कल्पना शक्तिके अभाव के कारण वही पोशाक अपनाये हुए हैं ― यद्यपि वे स्वीकार करते हैं कि भारतीय जलवायुकी दृष्टिसे यह जरा भी आरामदेह नहीं है। मैं तो कहूँगा कि बिना सोचे-समझे नकल करना प्रगतिकी निशानी नहीं है। और न पुरानी आदतोंको फिरसे अपनानेका मतलब हर बार “जमानेको ढकेलकर पीछे ले जाना” ही होता है। अगर जल्दबाजी में या भूलसे कोई गलत कदम उठा लिया गया हो तो उसे वापस ले लेना निश्चय ही प्रगतिकी निशानी है। और लोगोंका खयाल है कि पिछले सौ बरसोंमें हमने बहुत-से गलत कदम उठाये हैं। इसलिए आगे बढ़नेसे पहले सही रास्तेपर आनेके लिए हमें कई कदम पीछे हटना पड़ेगा। हम रास्ता भूल गये हैं, और मैं ‘प्रेक्षक’ तथा