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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं है। ‘जॉन बुल’ ने औसत अंग्रेजके अनुभवकी बात कही है। लेकिन उन्होंने अपने अनुभवोंको जिस तरह सभी भारतीयोंपर लागू कर दिया है, वह सचाईकी कसौटीपर ठीक नहीं उतरेगा। उनका अनुभव छावनियोंमें रहनेवाले उन मुट्ठी भर हिन्दुस्तानियों तक ही सीमित है जो लोभवश फौजमें भरती होते हैं और किसी अर्थ में भी भारतके जनसाधारण के प्रतिनिधि नहीं माने जा सकते। दोनों ही जातियोंके व्यापक अनुभव के आधारपर मेरा विचार यह है कि जहाँतक इन्सानसे इन्सानकी तुलनाका प्रश्न है, महत्त्वकी सभी बातोंके मामलेमें हिन्दुस्तानी दुनियाकी किसी भी जातिसे घटकर नहीं हैं। हाँ, यह मानना होगा कि शारीरिक दृष्टिसे हम अंग्रेजोंसे घटकर हैं। लेकिन ऐसा अन्य सभी बातोंकी अपेक्षा जलवायुके कारण है। मेरा खयाल है कि जानवरों की ओर उपेक्षाका आरोप भी आसानीसे सही सिद्ध किया जा सकता है। लेकिन मैं यह नहीं मानता कि हममें अन्य जातियोंकी तुलना में यौन-रोग अधिक पाये जाते हैं। हाँ, बड़े शहरोंकी बात और है। वेश्यावृत्तिके लिए लड़कियोंको देवार्पित कर देना निश्चय ही हमारी संस्कृतिपर एक कलंक है। यदि हिन्दुस्तानियोंको अंग्रेजों की तरह तैयार किया जाता और भारतकी स्थिति भी इंग्लैंड जैसी ही होती तो वह भी अच्छा काम करके दिखा सकता था। लेकिन हमारी संस्कृति भिन्न प्रकारकी है, जिसे मेरे ख्यालसे हम अनन्त कालतक कायम रखेंगे। भारतका स्वभाव युद्धप्रिय नहीं है। वह साथी इन्सानोंको मारनेके लिए अपने लाखों लोगोंको लड़ाईकी खन्दकोंमें भेजने में कोई महानता नहीं समझेगा, भले ही विपक्षी गलतीपर क्यों न हो। मेरे विचारसे अपनी मुसलमान आबादी समेत पूरा भारत दूसरोंको कष्ट पहुँचानेकी बजाय स्वतः कष्ट उठाने में अधिक सक्षम है। इसी विश्वासके कारण मैंने इस देशकी अनेक व्याधियों के उपचारके रूपमें असहयोगका प्रस्ताव करनेका साहस किया है। इसके सम्बन्धमें उसकी सही प्रतिक्रिया होती है या नहीं, यह तो आगे देखना है। यदि इसे केवल बदला लेनेकी भावनासे अपनाया गया होगा तो यह नाकाम रहेगा। यदि, जैसा मेरा विश्वास है, इसे आत्मशुद्धि और आत्मबलिदान के लिए अपनाया गया होगा तो इसकी सफलता अनिवार्य है। और भारत कायरोंका राष्ट्र नहीं है, यह बात इसके लड़ाकू लोगोंने ― चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, सिख हों या गुरखे ― अपने व्यक्तिगत शौर्य और साहससे सिद्ध कर दी है। मेरा कहना यह है कि यह देश निरा मिट्टीका लोंदा नहीं है और शायद उसे विश्व के विकासमें उच्चतर स्तरकी भूमिका निभानी है। यह केवल समय ही बतायेगा कि उसके भाग्य में क्या है।

लेकिन ‘जॉन बुल’ को यह समझनेका पूरा हक है कि उनकी बातोंके जवाब में जो कुछ मैने कहा है, वह अपने पक्षकी वकालत-भर है। मैं यह चाहूँगा कि इस प्रकारकी आलोचनाओंको हम मैत्रीपूर्ण चेतावनियोंके रूपमें लें और अपनी हर तरह की खामियों को दूर करना आरम्भ कर दें। मैं ‘जॉन बुल’ की इस बात से सहमत हूँ कि इस बातकी शिकायत करते रहनेसे कि कोई हमारी इज्जत नहीं करता, ऐसा काम करना कहीं अच्छा है जिससे लोग हमारी इज्जत करने पर मजबूर हो जायें। और वास्तवमें यही कारण है कि भारतने असहयोगका तरीका अपनाया है। इस पत्रके लेखकको यह शब्द पसन्द नहीं है। यदि मुझे उससे बेहतर शब्द मिले तो मैं आज ही उसे छोड़ दूं।