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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


कि भारतकी स्वतन्त्रताकी कुंजी शिक्षकों के ही हाथोंमें है। अपनी भारत यात्रा के दौरान में शिक्षकोंसे बराबर यह कहता आया हूँ कि स्वतन्त्रताकी कुंजी और खिलाफत सम्बन्धी अन्याय और पंजाब सम्बन्धी शिकायतोंके निराकरणके उपाय अध्यापकों और अध्यापिकाओंके ही हाथोंमें हैं। में स्वीकार करता हूँ कि भारतकी महिलाओंने देशके प्रति अपने कर्त्तव्यको सच्ची भावना के साथ निभाया है। अगर भारतीय गरीब हैं और दुनियाको विभिन्न जातियोंकी तुलना में इतनी गिरी हुई अवस्थामें हैं तो हमारी इस स्थिति के लिए आप भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितने कि हमारे शासक। क्योंकि अगर यथा राजा तथा प्रजा कहना सही है तो यथा प्रजा तथा राजा कहना भी गलत नहीं है। इसके साथ ही में यह भी कहना चाहूँगा कि लोगोंको वैसे ही अध्यापक भी मिलते हैं जैसे अध्यापकों के वे पात्र होते हैं। ‘भगवद्गीता’ में कहा गया है कि महत् जन जो कार्य करते हैं शेष लोग भी वही करते हैं। विद्वज्जन और शासक जो काम करते हैं, शेष व्यक्ति भी वही करते हैं। कांग्रेसन एक प्रस्ताव पास किया है जिसमें अध्यापकोंसे भी देशके प्रति अपने कर्त्तव्यका पालन करनेका उतना ही अनुरोध किया गया है जितना वकीलोंसे और मुझे पूरा विश्वास है कि जो अध्यापक देशकी सेवा करना चाहते हैं, उन्हें कभी भूखों नहीं मरना पड़ेगा।

जब मैं बहुत बड़ी तादाद में विद्यार्थियों को स्कूलों में पढ़ते देखता हूँ, जब में प्रशिक्षण कालेजों में इतने सारे शिक्षकोंको प्रशिक्षण प्राप्त करते देखता हूँ तब मुझे अपने देशके लिए बड़ा दुःख होता है, क्योंकि मुझे पूरा यकीन है कि जो शिक्षक इन कालेजोंसे निकलेंगे वे इस देशकी नई पीढ़ीके शिक्षण-प्रशिक्षणका दायित्व सँभालने की दृष्टिसे योग्यतम व्यक्ति नहीं हैं। इन कालेजोंमें इतनी ज्यादा गुलामी है कि अपने देश के भविष्य के प्रति मेरा मन निराशासे भर जाता है। बम्बईके नेशनल गर्ल्स स्कूलकी अध्यापिका श्रीमती जसलक्ष्मीने मुझे अपने अनुभव सुनाये हैं। उनका प्रशिक्षण सरकारी कालेज में हुआ है। उन्हें मजबूरन उस कालेजको छोड़ना पड़ा, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि जबतक वे इस कालेजमें सरकारकी सेवा करती रहेंगी तबतक आत्मसम्मान और स्वतन्त्रताको सुरक्षित रखना असम्भव है। एक शिक्षित और सम्माननीय महिलाने जब यह बात कही है तब आप अवश्य ही यह अनुभव करेंगे कि सरकारी स्कूलों में नौकरी करने का मतलब सचमुच क्या होता है। संसारके राष्ट्रोंकी तुलना में भारतके इतना नीचा होनेका एक कारण यह भी है। मुझे आपसे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अन्य लोगोंकी भाँति अध्यापकोंने भी अध्यापनके धन्धको इसलिए अपनाया है कि इसके द्वारा वे अपनी जीविका अर्जित करना चाहते हैं, इसलिए नहीं कि यह सुन्दर और सौम्य धन्धा है और इससे वे देशका भला कर रहे हैं। जिस तरह वकीलों और डाक्टरोंने अपने-अपने पेशे कमाईके धन्धके रूपमें अपनाये हैं उसी तरह अध्यापकोंने भी अध्यापन कार्य सिर्फ पैसा कमाने के लिए ही अपनाया है और उसके पीछे अन्य कोई भाव नहीं है। स्वयं में भी वकील बनकर भारतसे बाहर चला गया,