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गुजरात में आत्मत्याग


सज्जन कमाई छोड़कर आश्रम चलाने लगे, तो हमें यह बहुत बड़ा त्याग जान पड़ा। पंजाब के एक प्रोफेसरसे जब मैंने यह बात कही तब वे हँसे और मुझसे कहने लगे “मैं तो इसे त्याग ही नहीं मानता। उन्होंने कौनसा सर्वस्व अर्पण कर दिया है? वे क्या कष्ट उठाते हैं? क्या उन्हें इस बातकी फिक्र है कि कल रोटी मिलेगी या नहीं?

इस बातको वर्षों बीत गये हैं। उक्त प्रोफेसरने इसके बाद जेलयात्रा भी की और तब उनके पास फूटी कौड़ी भी न थी।

सर्वस्व त्याग करनेवाले जब असंख्य नवयुवक तैयार होंगे तभी गुजरात अपना मस्तक ऊँचा कर सकेगा। तभी गुजरात स्वराज्यमें अपना पूरा योगदान दे सकेगा। प्रत्येक प्रान्तका कर्त्तव्य है कि वह स्वराज्य प्राप्त करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करे। यदि इस वर्ष स्वराज्य नहीं मिलता तो यह बात प्रत्येक प्रान्तकी नाक कटने के समान होगी। कोई प्रान्त दूसरेको दोष नहीं दे सकता। जो प्रान्त सम्पूर्ण योग्यता प्राप्त कर लेगा वह स्वयं स्वराज्य लेगा और दूसरे प्रान्तोंको तत्क्षण तैयार करेगा। स्वराज्य लेनेका अर्थ हिन्दुस्तान के अविश्वासको दूर करना और उसमें आत्मश्रद्धा जाग्रत करना है। अपनेको भेड़ माननेवाले सिंहोंमें से अगर एकको भी वास्तविक स्थितिका ज्ञान हो जाये तो अन्य लोगोंको भी अपने सिंहत्वका ज्ञान होनेमें देर नहीं लगेगी। एकमें भी स्वराज्यकी शक्ति आई कि खिलाफत और पंजाबका फैसला हुआ ही समझो। इस शक्ति के बारेमें मैं किसी और समय लिखनेका विचार रखता हूँ। अभी तो मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि असहयोग के लिए आवश्यक शक्ति प्राप्त करने के लिए अनेक युवकों और महिलाओंको सम्पूर्ण त्याग करना चाहिए।

सब दे दें तो खायें क्या? भीख माँगकर खाने और सेवा करनेकी अपेक्षा तो सेवाका विचार छोड़कर कुटुम्बका पेट भरना ही उचित है। ‘भीख’ माँगकर सेवा करनी हो तो उपर्युक्त विचार ही उचित है। लेकिन प्रत्येक मजदूर अपनी मजदूरी पाने के लायक है और मैं जिस सेवाका विचार कर रहा हूँ वह सेवा लोगोंका नेतृत्व करनेकी नहीं बल्कि सच्चे अर्थोंमें लोगोंकी सेवा करनेकी है। सच्चा स्वयंसेवक वही है जो वैतनिक सेवककी अपेक्षा अधिक परिश्रमी, अधिक ईमानदार और अधिक शक्ति-सम्पन्न हो, जो अधिक नम्र और अधिक आज्ञाकारी हो। ऐसे स्वयंसेवकको सिर्फ पेट भरने योग्य वेतन दिया जाता है। यह भिक्षापर गुजारा करना नहीं वरन् देशकी सच्ची सेवा है। वह अधिक देता है और कम लेता है। जो अपने पास धन जमा करके देशकी मुफ्त सेवा करनेका दावा करता है वह सर्वस्व प्रदान करनेवाले स्वयंसेवकसे कम उतरता है। यदि सामान्य अनुभव इससे उलटा हो तो उसका अर्थ यह है कि सर्वस्व अर्पण करनेवाले ने चोरी की है। तात्पर्य यह कि उसने अपना धन तो दिया लेकिन अपना मन और अपना शरीर नहीं दिया। इतना ही नहीं; प्रायः सर्वस्व अर्पण करने का दावा करनेवाला व्यक्ति अधिक लेता है और कम देता है। यदि मैं अपने पाससे एक लाख रुपया देकर देशको लाखों रुपयोंके खर्च में डाल देता हूँ और उसके काममें अपना पूरा समय और मन नहीं लगाता तो मैं अवश्य भिखारी बन जाऊँगा बल्कि मेरी स्थिति भिखारीसे भी दयनीय हो जायेगी। मैं ऐसे [ अधूरे ] आत्मत्यागका