पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/३६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यह विचार


सेवाका

-- ३३२ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय लगती है। हम उन्हें वही जूठा भोजन देते हैं जो हम जानवरोंको देते हैं। उनके बीमार पड़ने अथवा साँपके काटनेपर हमारे वैद्य अथवा डाक्टर उनकी दवा करने नहीं जाते। यदि जाने लगें तो जहाँतक हमारा वश चलता है हम उन्हें जानेसे रोकते हैं। अन्त्यजों- के रहने के लिए खराबसे-खराब मुहल्ला और उसमें न रोशनीकी व्यवस्था और न सड़कोंका ही प्रबन्ध । उनके लिए कुएँ नहीं होते। सार्वजनिक कुओं, धर्मशालाओं और विद्यालयोंका लाभ उन्हें नहीं मिलता। उनसे हम कठिनसे-कठिन सेवा लेकर कमसे- कम वेतन देते हैं। उनके लिए तो ऊपर आकाश और नीचे धरती है। यह क्या वैष्णव धर्मकी निशानी है ? इसे दयाधर्म कहें कि क्रूरताधर्म कहें? अंग्रेज सरकार, जिसके साथ आपने भी असहयोग किया है, हमारा इस सीमातक तिरस्कार नहीं करती। हम तो अन्त्यजोंके प्रति अपनी डायरशाहीको धर्म मानकर पोषित करते है। मैं तो मानता हूँ कि हमने जो बोया है वही काट रहे हैं। हम अन्त्यजोंका तिरस्कार करके जगत् के तिरस्कारका पात्र बनते हैं। अस्पृश्यताको बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती। वह सत्य और अहिंसाका विरोधी धर्म है; इससे वह धर्म ही नहीं है। हम ऊँच हैं और दूसरे नीच है- ही नीच है। जिस ब्राह्मणमें शूद्रका - गुण नहीं वह कोई ब्राह्मण नहीं है। ब्राह्मण तो वह है जिसमें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके सब गुण हों। इसीके उपरान्त ज्ञान आता है। शूद्र कोई ज्ञानसे नितान्त विमुख नहीं है। उनमें सेवा प्रधान है। वर्णा- श्रम धर्ममें ऊँच-नीचकी भावनाको अवकाश नहीं है। वैष्णव-सम्प्रदायमें तो भंगी, चांडाल आदि तर गये हैं। जो धर्म जगत्-मात्रको विष्णुमय जानता है वह अन्त्यजोंको विष्णुसे रहित कैसे मान सकता है ? | लेकिन मैं आपसे शास्त्रार्थ नहीं करना चाहता। मैं विद्वान् होनेका दावा नहीं करता। शास्त्रार्थमें सारे शास्त्री मुझे भले ही हरा दें। लेकिन मुझे विश्वास है कि दया धर्मका मुझे ठीक-ठीक अनुभव है। दया धर्ममें अन्त्यज तिरस्कारको अवकाश हो ही नहीं सकता। और फिर आप अन्त्यज किसे कहेंगे? बुनकरको अन्त्यज कहेंगे? चमड़ेके जो लखपति व्यापारी हैं उन्हें अन्त्यज कहेंगे? अथवा सोना सारी मलिनताको धो डालता है ? जिसने चमारका धन्धा छोड़ दिया है, जो भंगी मोटर चलाता है, मिलमें काम करता है, हमेशा नहाता-धोता है, क्या उसे भी आप अस्पृश्य मानेंगे? लेकिन मैं दलील किसलिए करूं? जिसे अस्पृश्य मानो, उससे छू जानेपर पाप मानो और नहाना चाहो तो नहा लो; लेकिन मेरी प्रार्थना तो यह है कि जिस तरह मासिक धर्म में पड़ी हुई माताका आप तिरस्कार नहीं करते बल्कि उसकी सेवा करते हैं उसी तरह अन्त्यजोंका भी तिरस्कार न कर उनकी सेवा करें। उनके लिए कुएँ खुदवाएँ, स्कूल बनवाएँ, उन्हें दवा दें, उनके लिए वैद्य भेजें, उनके दुःखमें भाग लें, उनकी आत्माकी दुआ लें, उनको अच्छी जगहमें रखें, अच्छा वेतन दें, सम्मान और शिक्षा दें तथा उन्हें अपना छोटा भाई समझें। उनसे मद्यपान, गो-मांसाहार आदि छुड़वाएँ, जो छोड़ें उन्हें प्रोत्साहन दें। ऐसा करके आप देख सकेंगे कि अस्पृश्यता समाज- का एक अतिरिक्त अंग है। आपमें कुछ-एकने अन्त्यजों सम्बन्धी मेरे विचारोंके कारण Gandhi Heritage Portal