पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/४१५

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श्रद्धाका स्वरूप ३८३ है, इसलिए इसका उत्तर अपेक्षित है। मैं यह नहीं कह सकता कि मुझे स्वर्गीय लोक- मान्यका अनुयायी होनेका गौरव प्राप्त है। मैं अपने करोड़ों दूसरे देशवासियोंकी भाँति, लोकमान्यकी अदम्य इच्छाशक्ति, उनकी अपार विद्वत्ता, उनके देशप्रेम और सबसे अधिक उनके व्यक्तिगत जीवनकी पवित्रता और उनके महान् त्यागके कारण उनका प्रशंसक हूँ। उन्होंने आधुनिक कालके दूसरे सभी लोगोंसे अधिक जनताके मनको प्रभा- वित किया है। उन्होंने हमारे अन्दर स्वराज्यकी भावना फूंकी है। मौजूदा शासनतन्त्रकी बुराइयोंको जितना श्री तिलकने समझा था उतना शायद किसी दूसरेने नहीं समझा। और मैं पूरी नम्रताके साथ यह दावा भी करता हूँ कि मैं उनके सन्देशको जनतातक पहुँचाने के लिए उतनी ही सचाईसे काम करता हूँ जितना उनका अच्छेसे-अच्छा शिष्य कर सकता है। किन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि मेरा तरीका श्री तिलकका तरीका नहीं है। और इसी कारण अभीतक महाराष्ट्र के नेताओंसे मेरी जैसी चाहिए वैसी पटरी नहीं बैठी, किन्तु मैं ईमानदारीसे महसूस करता हूँ कि मेरे तरीकेपर श्री तिलक अविश्वास नहीं करते थे। मुझे उनका विश्वासपात्र होनेका सौभाग्य प्राप्त था। उन्होंने कई मित्रोंके सामने अपनी मृत्युसे केवल १५ दिन पहले मुझसे जो अन्तिम बात कही थी वह यह थी कि यदि जनता द्वारा उसे स्वीकार कराया जा सके तो मेरा तरीका बहुत उत्तम सिद्ध होगा। उन्होंने यह भी कहा था कि उन्हें इसमें शक अवश्य है। पर मेरे पास कोई दूसरा तरीका नहीं है। मैं यही आशा कर सकता हूँ कि जब अन्तिम परीक्षाका समय आयेगा तब यह सिद्ध हो जायेगा कि देशने अहिंसात्मक असह- योगका तरीका पूरी तौरपर सीख लिया है। मैं अपनी अन्य मर्यादाओंको भूला नहीं हूँ। मैं किसी प्रकारकी विद्वत्ताका दावा नहीं कर सकता। मुझमें तिलक-जैसी संग- ठन-शक्ति भी नहीं है। मेरे साथ कोई ऐसा सुगठित, अनुशासित दल भी नहीं है जिसको मैं अपने नेतृत्वमें चला सकूँ; और २३ सालतक देशसे बाहर रहनेके कारण मुझे भारतका उतना अनुभव नहीं है जितना कि लोकमान्यको था। हम दोनोंमें दो चीजें बिलकुल ही समान रही है -- देशके लिए प्रेम और स्वराज्यके लिए सतत प्रयास । इसलिए मैं गुमनाम पत्र-लेखकको आश्वस्त कर देना चाहता हूँ कि लोकमान्य- की स्मृतिके प्रति श्रद्धामें मैं किसीसे कम नहीं रहूँगा और स्वराज्य-प्राप्तिके लिए लोकमान्यके सबसे अग्रणी शिष्योंके कन्धेसे-कन्धा मिलाकर आगे बढ़ता रहूँगा। मैं जानता हूँ कि तिलकको एक ही प्रकारकी श्रद्धांजलि सबसे ज्यादा पसंद होगी और वह है कमसे-कम समयमें भारत द्वारा स्वराज्य-प्राप्ति। इसके अतिरिक्त और कोई भी चीज़ उनकी आत्माको शान्ति नहीं दे सकती। जहाँतक शिष्यत्वका प्रश्न है वह एक पवित्र व्यक्तिगत मामला है। मैंने सन् १८८८ में दादाभाईके चरणोंमें सिर रखा था, किन्तु वे मुझे अपनेसे बहुत दूर लगे। मैं उनका पुत्र बन सकता था, शिष्य नहीं। शिष्यका दर्जा पुत्रसे ऊँचा है। शिष्यत्व एक नया जन्म होता है। वह स्वैच्छिक आत्मसमर्पण होता है। सन् १८९६ में अपने १. जिन दिनों गांधीजी लन्दनमें वकालत पढ़ रहे थे; देखिए आत्मकथा, भाग १, अध्याय २५॥ Gandhi Heritage Portal