पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/४३९

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टिप्पणियाँ ४०७ बुढ़ापेका दोष? एक पाठकने 'नवजीवन-अभ्यासी' के नामसे यह लिखा है: गुजरातके दो प्रमुख विद्वानोंने वृद्ध होते हुए भी देशकी इस विषम स्थितिमें सरकारी कालेजोंमें गुजरातीके प्राध्यापकोंका स्थान स्वीकार कर लिया है। इस प्रकारको उद्वेगकारी घटनापर आप अवश्य कोई टिप्पणी करेंगे, मुझे ऐसी आशा थी। किन्तु वह व्यर्थ गई; 'नवजीवन के एकके बाद एक निकलनेवाले दो अंकोंके पन्ने उलटने के बाद मैं निराश हो गया हूँ और इस सम्बन्ध आपके मौनसे मुझे आश्चर्य हुआ है। मुझे विश्वास है कि आपने इस सम्बन्ध विचार अवश्य किया होगा और विचार करके ही कोई टीका न करनेका निर्णय किया होगा। आपने किस कारणसे प्रेरित होकर ऐसा किया, यदि आप इसका स्पष्टीकरण कर देंगे तो मुझे और कदाचित् मेरे जैसे बहुतसे लोगोंको इस विषयमें जो आश्चर्य हो रहा है वह न होगा। 'अभ्यासी' का यह अनुमान सच है। मैंने सोच-समझकर ही कोई टीका नहीं की है। हमारे दो वृद्ध विद्वानोंने सरकारी नौकरी स्वीकार की, इससे दुःख तो मुझे भी हुआ। किन्तु उनके कार्य की टीका कैसे की जाये ? बुढ़ापा आनेपर कोई प्राध्यापक नहीं हो सकता यह तो कोई कारण नहीं है। फिर सभी बूढ़े असहयोगी होने चाहिए ऐसा भी आवश्यक नहीं है। और फिर विद्वान् लोग सह्योगी नहीं हो सकते यह भी नहीं कहा जा सकता। और यदि बूढ़ों अथवा विद्वानोंको सहयोग करनेका अधिकार है तो फिर हम टीका किसकी करें ? बूढ़े और विद्वान् मनुष्योंको सरकारकी नौकरी स्वीकार करने में कोई बुराई दिखाई नहीं देती, यह बात असहयोगियोंको चौंकाने- वाली और विचारमें डालनेवाली अवश्य है। मेरी मान्यता है कि असहयोगियोंमें भी कुछ लोग बूढ़े और विद्वान् हैं। इसका अर्थ यह है कि हमारे लिए इस सम्बन्धमें विचारने योग्य कुछ अधिक नहीं रह जाता। मैं तो यह मानता हूँ कि इन दोनों विद्वानोंने लालचसे डाँवाँडोल होकर नहीं बल्कि उचित विचार करके सरकारी नौकरी स्वीकार की है। अत: 'अभ्यासी' और उसके जैसे दूसरे लोगोंके लिए इन दोनों वयोवृद्धोंको दोष देने योग्य कोई बात नहीं रहती। 'अभ्यासी' को जो आश्चर्य हुआ है उसमें मुझे असहिष्णुताका आभास मिलता है; किन्तु हमें अन्य लोगोंको भी विचार और कार्य, दोनोंकी उतनी ही स्वतन्त्रता देनी चाहिए जितनी हम अपने लिए चाहते हैं; और वयोवृद्धोंको तो विशेष रूपसे देनी चाहिए। मित्र रूपमें शत्रु 'प्रजामित्र' के सम्पादकको एक कार्ड मिला है, उसे मैंने पढ़ा है। पत्र अहमदा- बादसे भेजा गया है। उसमें भेजनेवाले के दस्तखत तो हैं, किन्तु जगहका नाम नहीं है। दस्तखत एक मुसलमान भाईके हैं। उसकी भाषा यहाँ दी जाने योग्य, शिष्ट नहीं है। उसमें सम्पादकको मेरे विचारोंकी आलोचना करनेपर गालियाँ दी गई है। मुझे , Gandhi Heritage Portal