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कुहरा

किसी प्रचारके लगभग ४०,००० व्यक्ति जेल जानेके लिए निकल पड़े। लगभग दस हजार तो कैद ही किये गये। उसके बाद क्या हुआ सो सबको मालूम है । उस समय जनता जिन चीजोंके लिए लड़ी थी, वे सब उसे प्राप्त हो गईं। स्वेच्छापूर्वक कष्ट-सहनके कठोर अनुशासनमें तपकर वह रक्तहीन क्रान्ति सम्पन्न हुई ।

में यह विश्वास नहीं कर सकता कि भारत उतना सब नहीं कर पायेगा। लॉर्ड कैनिंगके शब्दोंको दोहरायें तो, हो सकता है कि भारतके शान्त नीलाकाशमें भले ही मनुष्यके अंगूठेके बराबर एक मेघ-खण्ड क्षितिजपर दिखाई दे रहा हो, किन्तु वह किसी भी क्षण कल्पनातीत आकार धारण करके कब फट पड़ेगा, यह कोई नहीं कह सकता । मैं नहीं कह सकता कि समूचे भारतकी जनता कब मैदानमें कूद पड़ेगी। किन्तु इतना मैं अवश्य कहता हूँ कि शिक्षित-वर्ग, जिससे कांग्रेसने अपील की है, एक दिन अवश्य--कदाचित् इस वर्षके भीतर ही-- राष्ट्रोचित ढंगसे मैदानमें उतरेगा।

किन्तु वे ऐसा करें या न करें, राष्ट्रकी प्रगतिको कोई भी व्यक्ति अथवा वर्ग रोक नहीं सकता । अशिक्षित कारीगर, स्त्रियाँ, साधारण जन--सभी आन्दोलनमें अपना हिस्सा बॅटा रहे हैं। शिक्षित वर्ग के प्रति की गई अपीलने उनके लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया है। भेड़ोंसे बकरियोंको पृथक करना आवश्यक था। शिक्षित वर्गको कसौटीपर कसना ही था। उनके द्वारा और उनके माध्यमसे ही आन्दोलन प्रारम्भ करना जरूरी था। भगवान्की दयासे असहयोग आन्दोलनने अबतक अपने सहज मार्गका ही अनुसरण किया है।

स्वदेशीके प्रचारको एक तीव्र एवम् अनन्य रूपमें सामने आना ही था और वह उचित समयपर सामने आ गया है। वह असहयोग आन्दोलनके कार्यक्रमका ही एक भाग था और है। मेरा दावा है कि वही भाग सबसे बड़ा, सबसे निरापद और सर्वाधिक सफल है। वह अपने वर्तमान रूपमें इससे पहले प्रारम्भ नहीं किया जा सकता था । आवश्यक था कि देश अपने लिए चरखेका महत्त्व स्पष्ट रूपसे समझे । पुराने अन्धविश्वासों तथा पूर्वग्रहोंसे देशको मुक्त करना था । देशको ठीक-ठीक समझना था कि केवल ब्रिटिश वस्तुओंका बहिष्कार व्यर्थ है, और उसी प्रकार समस्त विदेशी वस्तुओंका बहिष्कार भी व्यर्थ है। उसे समझना था कि वस्त्रों में स्वदेशीका परित्याग करके ही उसने अपनी स्वतन्त्रता खोई थी, और अब वह हाथके कते और बुने कपड़े-को अपनाकर ही उस स्वतन्त्रताको फिरसे प्राप्त कर सकता है। उसे समझना था कि उसने अपनी नादानीमें हाथसे कातना-बुनना छोड़कर अपनी कलात्मक रुचि और अपना कौशल खो दिया है। उसे समझना था कि भारतकी जीवन-शक्तिमें घुन लगने और भारतीय जीवनमें बार-बार अकाल आनेका इतना बड़ा कारण सेनापर होनेवाले घनका अपार व्यय नहीं है, जितना कि इस अनुपूरक उद्योगका नष्ट होना है। प्रत्येक प्रान्तमें चरखेके प्रति आस्थावान् लोगोंका उद्भव होना था और लोगोंको खद्दरके सौन्दर्य तथा उसकी उपयोगिताको ठीक-ठीक हृदयंगम करना था ।

१.दक्षिण आफ्रिकी संघर्ष के सिंहावलोकनके लिए देखिए खण्ड १२, परिशिष्ट २८ ।