पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/५५२

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अस्पृश्यता और राष्ट्रीयता ५२९ उन्हे किस तरह गुलाम बनाया है, इसका जब मैं विचार करता हूँ तब मुझे अपना जीवन भार लगने लगता है। लेकिन मेरी समझमे तो हमारे अत्याचारोमे अज्ञान है, इरादा नही, इसीलिए शब्द-प्रहारोके बावजूद मै अत्यन्त प्रेम और विनयसे हिन्दू- ससारको जाग्रत कर रहा हूँ और जी रहा हूँ। अन्त्यजोके प्रति आज हमारा जो व्यवहार है उसके लिए हमारे पास एक भी नैतिक कारण नहीं है। किसी मैली चीजसे छू जानेपर नहानेकी बात मुझे अच्छी लगती है। मैं स्वय भी नहाता हूँ। दूसरोको भी वैसा करनेको सलाह देता हूँ। लेकिन जो मेरे जैसे ही शरीरसे शुद्ध जान पड़ते है उनकी जात पूछकर अगर वे अन्त्यज हो तो उनको त्यागने- का न्याय तो मुझे असह्य है। स्वराज्यमे दुबलकी रक्षा प्रधान है। यदि हम उनकी रक्षा करनेके लिए तैयार न हो, अपने कुओसे उन्हे पानी न भरने दे, उन्हे गन्देसे गन्दे मुहल्लोमे रखे, उन्हे अपने स्कूलोमे न आने दे, और आने भी दे तो उन्हे अलग आसन में, हमसे भी ज्यादा साफ होकर आनेपर भी उनसे छू जानेपर हम नहायें तो यह हिन्दू-शास्त्र नही है, अपितु शास्त्रोकी ज्यादती है और डायरशाही है। अन्त्यजोके पक्षके एक भाई मुझे लिखते है कि लॉर्ड क्लाइव' अन्त्यजोकी सहायता लेकर अन्य लोगोका दमन किया था। मैने इस बातकी जांच नहीं की है, लेकिन उसकी सचाईके सम्बन्धमे मुझे कोई सन्देह नही है। आज भी अगर अन्त्यज भुलावेमे पड जाये तो ऐसे अनेक क्लाइव पड़े है जो उसका मनमाना लाभ उठाकर सिर उठानेवालो को कुचलनेके लिए तैयार है। गोरखोमें हमारा ही खून है, चाँदपुरमै निर्दोष मजदूरोपर उनका उपयोग किसने किया? अब सिखोकी आँखे खुली है। लेकिन इस राज्य-व्यवस्थामे हमे दवानेके लिए क्या इस बहादुर कौमका कम उपयोग किया गया है? अपनी दुर्बलताओको छिपानेसे, सबलता कहकर उनका वर्णन करनेसे, उनमे सुधार करनेकी बातको मुल्तवी रखनेसे हम अपने ही गलेमे फन्दा डालते है। जिस धर्ममे गरीबका भाग निकालकर खानेका रिवाज है उसी धर्मके अनुयायी अगर दूरसे ही अन्त्यजोकी झोलीमे अपनी थालीकी बची हुई जूठन और सड़ा हुआ अनाज फेंके तो उनके इस अकृत्यको डायरशाही न कहकर और क्या कहा जायेगा। प्रस्तुत पत्र-लेखक कहते है कि भडौच परिषदें जब अन्त्यजोको दाखिल किया गया उस समय सब लोग वहाँ बैठे रहे सो केवल सकोचवश; लेकिन उनके दिलोको ठेस पहुंची थी। यदि ऐसी बात है तो इसका मुझे दुख है। अगर हम स्वराज्य प्राप्त करना चाहते है तो हम एक-दो व्यक्ति ही क्यो न हो, हमे अपने विचारोको प्रकट करना चाहिए और उनपर अमल करना चाहिए। मैं जानता हूँ कि अस्पृश्यताके सम्बन्धमे लेख लिखकर अथवा भाषण देकर मैने अनेक भावुक हिन्दुओके दिलोको दुखाया है। लेकिन साथ ही मै यह भी जानता हूँ कि इसमे द्वेष नहीं है और न कभी था। वैद्य जब रोगीको चिरायता देता है तब १. लॉर्ड रॉबर्ट क्लाइव (१७२५-१७७४)। २०-३४