पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/५५३

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५३० सम्पूर्ण गाधी वाड्मय रोगी बुरा मुंह बनाते हुए भी जानता है कि यह चिरायता उसके लिए सबसे अच्छी औषध है। [गुजरातीसे] नवजीवन, १४-८-१९२१ २६०. समझौता? इस तरहके मिले हुए पत्रोमे यह कोई अकेला पत्र नहीं है। मैंने भी वसन्त- राम शास्त्रीके लेखको पसन्द किया, इसके लिए मुझे कितने ही मित्रोने उलाहना दिया है; तथापि इस सम्बन्धमे व्यक्त किये गये विचारोपर मै दृढ हूँ। उपर्युक्त पत्र और इस तरहकी टीकाएँ मुझे प्रिय है। यह एक सन्तोषजनक बात है कि अब बहुत सारे लोग अस्पृश्यताके दोषको देखने लगे है और उनका यह सुझाव है कि इसमे सम- झौतेको कोई स्थान नहीं है। शास्त्रीजीके लेखको आलोचक अपनी दृष्टिसे देखते है। मैने शास्त्रीजीकी दृष्टिसे ही उसका अवलोकन किया और जब यह देखा कि शास्त्रीजी अस्पृश्यताको एक शौच-क्रियाके रूपमे मानते है तब मुझे प्रसन्नता हुई। रजस्वला माता- को न छूने जितनी अस्पृश्यता अगर अन्त्यजोके सम्बन्धमें भी बरती जाये तो उसे मैं समझ सकता हूँ। 'चाडाल' को न छूनेकी प्रथा कैसे पड़ी होगी, इस बातको मै बिना किसी अडचनके समझ सकता हूँ। जो सुधारक स्वयं अपना स्थान न छोड़कर अपने समीप आनेवाले लोगोका स्वागत करता है क्योकि उसे पूरी आशा होती है कि वे लोग कभी-न-कभी सुधारोके स्वरूपसे अवगत हो जायेंगे- वही सच्चा सुधारक है। मैने शास्त्र के नामसे प्रचलित अस्पृश्यताकी निन्दा की है और इसमे मै कोई परिवर्तन नही करना चाहता। लेकिन जो अन्त्यजोसे छू जानेपर नहानेके बावजूद अन्त्यजोके प्रति प्रेमभाव रखेगे, उनके लिए जलाशय बनवायेंगे, उन्हे पढायेंगे, उनके दुःखमै दु.खी होगे, उन्हे खिलाकर खायेगे, उन्हे आदरसहित ट्रेनमें बिठायेंगे, उनके बीमार पडनेपर उनकी सेवा-शुश्रूषा करेगे उनकी मै वदना करूंगा। जो अन्त्यजोके स्पर्शसे अपनी आत्माको कलुषित हुआ मानेगा उसके लिए मैं भगवान्से प्रार्थना करूंगा कि वह उसे क्षमा कर दे। मैं अपनी मान्यतामे, अपनी पद्धतिमें अथवा अपने व्यवहारमे कोई परिवर्तन नही करनेवाला हूँ। लेकिन जो लोग इस आदर्शको जितना ज्यादा अपनायेगे, मैं उतना ही उनका सम्मान करूंगा। [गुजरातीसे] नवनीवन, १४-८-१९२१ १. उक्त पत्र पहा उद्धृत नहीं किया गया | यह पत्र एक सनातनी हिन्दूने लिखा था जिसमें उसने शाली वसन्तरामके लेखपर गांधीजीने जो मालोचना की थी उसके विरुद्ध शिकायत की थी; देखिए "टिप्पणियों", १७-७-१९२१ ।