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कुछ शंकाएँ

७.अहिंसाका मेरा उपदेश हास्यास्पद है, वह सिर्फ जैन लोगोंको ही मान्य है और उसके अनुकूल आचरण करनेवाले को तो आत्महत्या ही कर लेनी चाहिए। इसके अतिरिक्त मेरे आन्दोलन, हड़ताल आदिसे हिसा हो रही है ।

८.मद्यपान-निषेध ठीक हैं लेकिन सबसे पहले अफीम आदि छुड़वानेका प्रयत्न करना चाहिए। इसके अलावा सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु तो गोवध-निषेध है। उसमें मैंने कितना योग दिया है ?

पहली शंकाका उत्तर

कुछ समयतक अंग्रेजोंके बिना हमारा गुजारा सम्भव नहीं है, ऐसे विचार ही हमारी दुर्दशाके परिचायक हैं और इन विचारोंसे मुक्ति पाना ही स्वराज्य है । अंग्रेजों के आनेसे पहले क्या हमारी हालत खराब थी? उनके जानेके बाद तुरन्त हम झगड़ने लगेंगे - ऐसा मानना हमारे लिए अपमानजनक है। एक बार अगर हम यह समझ भी लें कि यह भय सच्चा है तब भी हमें, आपसी झगड़ेका जोखिम उठाकर भी, अंग्रेजोंके प्रभुत्वसे मुक्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए ।

दूसरी शंकाका उत्तर

असहयोग आन्दोलनमें पारसियोंके शामिल होनेसे पहले मुझे अधिकांश हिन्दुओंको शामिल करनेका प्रयत्न करना चाहिए, यह कथन भी हमारी दुर्बलताका परिचायक है। पारसी और हिन्दू दोनों भारतीय हैं। दोनोंमें से जो समझदार हैं उनका हिन्दुस्तानके प्रति एक ही धर्म है । और फिर हिन्दू तो बहुत शामिल हो चुके हैं और जो शेष बचे हैं उन्हें शामिल करनेके प्रयत्न चालू हैं। असहयोगमें यदि एक भी हिन्दू शामिल न हो और पारसी उसके मर्मको हिन्दुओंसे पहले समझ लें तो हिन्दुओंकी राह देखे बिना उन्हें असहयोगमें शामिल हो जाना चाहिए। जो समझ गये हैं वे दूसरोंकी राह न देखें।

तीसरी शंकाका उत्तर

चरखेसे स्वराज्य प्राप्त करनेकी बात जिसे मृगतृष्णा जान पड़े तो मुझे यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि उसे असहयोग कतई रुचिकर प्रतीत नहीं होगा । हिन्दुस्तान-के लोग धीरे-धीरे इस बातको समझते जा रहे हैं और मुझे विश्वास है कि वे आगे और अच्छी तरह समझ जायेंगे । जिस धर्मको छोड़नेसे हम भिखारी बन गये उस धर्मको स्वीकार करनेसे ही हम मालदार बन सकते हैं, यह बात कमसे-कम मुझे तो मृगतृष्णा नहीं लगती। चरखा सहज धर्म है, यह बात अब दिन-ब-दिन अनुभवसे स्पष्ट होती जा रही है। दो हजार अथवा बारह सौ वर्ष पहलेकी स्थिति में पहुँचनेकी बातको मैं पाप नहीं मानता। हमने भूलसे, जोर-जबरदस्तीसे अथवा कालके अधीन होकर अमुक अच्छी आदतोंको छोड़ दिया हो और उन्हें अगर हम पुन: ग्रहण करते हैं तो इसमें हम अपनी विवेकबुद्धिका उपयोग करते हैं ।

चौथी शंकाका उत्तर

पण्डितजी और अन्य महान् नेता इस युद्धमें शामिल नहीं हैं यह सचमुच खेद-जनक बात है। लेकिन जब नेताओंके बीच मतभेद हो तब जनताको अपने विवेकसे