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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रास्ता चुन लेना चाहिए। अगर जनता ऐसा निश्चय करे कि सब नेताओंके एकमत होने तक कोई कार्य नहीं किया जाना चाहिए तो राष्ट्र कभी प्रगति नहीं कर सकता । स्वराज्यमें सबको अपनी-अपनी राह चुन लेनी होगी।

पांचवीं शंकाका उत्तर

सम्भव है कि खिलाफतको में न समझता होऊँ तथापि मैंने उसका यथाशक्ति अध्ययन तो किया ही है । मुस्लिम और हिन्दू धर्मके बीच अनिवार्य विरोध है, यह मैं नहीं मानता। यदि यह बात है तो उसका अर्थ हुआ कि हिन्दू-मुसलमान हमेशा ही परस्पर एक-दूसरेके शत्रु रहेंगे। मनुष्य जातिको सदा सर्वदा परस्पर एक-दूसरेका शत्रु ही बने रहना चाहिए ऐसा मैं नहीं मानता। खलीफाको धर्मकी खातिर दस वर्ष में एक बार अवश्य युद्ध करना चाहिए ऐसा नियम में नहीं जानता। क्रूसेडेसके बाद धर्मकी खातिर कोई युद्ध हुआ, इस बातसे मैं परिचित नहीं हूँ। आफ्रिकामें मुझे ऐसी कोई बात दिखाई नहीं दी जिससे मुझे यह लगे कि जजीरत-उल-अरबपर मुसलमानों- का अधिकार नहीं होना चाहिए ।

छठी शंकाका उत्तर

मैं जानता हूँ कि पंजाब सम्बन्धी मेरे विचार अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। लाला हरकिशनलाल अगर स्वयं सरकारके साथ मिल गये हैं तो मेरे लिए यह अब और भी जरूरी हो जाता है कि मैं असहयोग करूँ। लाला हरकिशन-जैसे व्यक्तियोंको भी पंजाब-के अपमानका इतना कम दर्द हो तो उसकी पूर्ति करनेके लिए भी असहयोग करना उचित जान पड़ता है।

सातवीं शंकाका उत्तर

अहिंसाका मेरा उपदेश हास्यास्पद लगता है। लेकिन उसीमें हिन्दू धर्म निहित है। उसका कम-ज्यादा पालन करना ही सब धर्मोका मूल है। जिस धर्ममें जितना दया-भाव है उतना ही उसमें धर्म है। दयाकी कोई सीमा नहीं होती। सीमा बाँधना मेरा काम नहीं है। सब कोई अपनी-अपनी सीमा निर्धारित कर लेते हैं। वैष्णव धर्ममें अहिंसा प्रधान है। जैन-ग्रन्थोंमें उसपर विशेष रूपसे विचार किया गया है और वह मुझे मान्य भी है। लेकिन अहिंसापर -जैन अथवा अन्य किसी धर्मका एकाधिकार नहीं है। अहिंसा सर्वव्यापक और अविचलित नियम है। जैन-दर्शनमें उपवास आदिके जो नियम दिये गये हैं उन्हें आत्मघातका पोषण करनेवाला कहना मेरे खयालसे जैन-पद्धतिको न समझना है। लेकिन अहिंसाके अन्तिम लक्षणकी चर्चा करनेकी यहाँ कोई जरूरत नहीं है। अगर वह मान्य न हो तो भी इस समय हमारा कर्त्तव्य शान्तिपूर्वक कष्टसहन करके ही युद्ध करना है, यह बात सबको स्वीकार करनी ही होगी इसे स्वीकार किये बिना काम नहीं चलेगा।

भाई नरिमनने एक ओर अहिंसाके अन्तिम लक्षणकी हँसी उड़ाई है तथा दूसरी ओर इस आन्दोलनको हिंसात्मक माना है जिससे यह सूचित होता है कि उन्होंने

१.जेरुसलेमपर पुनः अधिकार करनेके लिए ईसाई-राष्ट्रों द्वारा किये गये धर्म-युद्ध ।