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में सोचने और अपने विचार व्यक्त करनेका झंझट न होता तो वे और भी बड़े सुधारक बन सकते थे; यही बाधा यदि लोकमान्य तिलकके आड़े न आती तो वे और भी बड़े विचारक सिद्ध होते। इन दोनों महान् व्यक्तियोंका अपने देशकी जनता-पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। यह प्रभाव कहीं अधिक व्यापक होता यदि उनका पालन-पोषण एक अधिक स्वाभाविक पद्धतिमें हुआ होता। इसमें शक नहीं कि अंग्रेजी साहित्यके समृद्ध कोषकी जानकारीसे दोनोंको काफी लाभ हुआ था। लेकिन ऐसा ज्ञान तो उनको अपनी देशी भाषाओंके जरिये भी मिल सकता था । कोई भी देश कोरे अनुवादोंकी भरमार करके राष्ट्र नहीं बन सकता। जरा सोचिये कि अगर अंग्रेजीमें'बाइबिल 'का प्रामाणिक संकलन उपलब्ध न होता तो अंग्रेज जातिका क्या होता ? मैं तो मानता हूँ कि चैतन्य, कबीर, नानक, गुरु गोविन्दसिंह, शिवाजी और प्रताप हमारे राममोहन राय और तिलकसे कहीं बड़े थे। वैसे मैं समझता हूँ कि इस प्रकारसे तुलना करना ठीक नहीं है। ये सभी विभूतियाँ अपने-अपने ढंगसे महान् थीं । परन्तु यदि उनके कामके फलसे उनको जाँचा जाये तो स्पष्ट है कि जनतापर राममोहन और तिलकका प्रभाव इतना स्थायी या व्यापक नहीं है जितना कि इन अन्य भाग्य-शालियोंका है। पर यदि इन दोनोंके सामने आनेवाली बाधाओंको देखकर इनकी महानताको आँका जाये तो स्पष्ट है कि ये लोग प्रतिभा के बड़े धनी थे और अगर इन दोनोंका लालन-पालन एक स्वाभाविक पद्धतिमें हुआ होता तो ये और भी बड़े-बड़े काम करके दिखाते। मैं यह माननेको तैयार नहीं कि राजा राममोहन और लोक-मान्यने जो विचार व्यक्त किये वे उनके दिमागमें अंग्रेजीकी शिक्षाके बिना आ ही नहीं सकते थे। भारत देश जितने भी अन्धविश्वासोंसे पीड़ित है उनमें सबसे बड़ा यही है कि स्वातन्त्र्य-परक विचारोंको प्रेरित करने और वैचारिक सुस्पष्टता पैदा करने के लिए अंग्रेजी भाषाका ज्ञान आवश्यक है। हमें याद रखना चाहिए कि पिछले पचास वर्षोंके दौरान देशके सामने शिक्षाकी केवल एक पद्धति रही है और अभिव्यक्ति-का केवल एक माध्यम देशपर जबरदस्ती लाद दिया गया है। इसलिए हमारे पास यह बतलानेका कोई साधन ही नहीं रह गया है कि यदि मौजूदा स्कूल-कालेजोंकी शिक्षा-पद्धति हमारे यहाँ प्रचलित न होती तो हम क्या बनते। लेकिन हम इतना तो जानते ही हैं कि आज भारत पचास वर्ष पहलेकी अपेक्षा ज्यादा निर्धन है, उसमें अपनी प्रतिरक्षाकी सामर्थ्य पहलेसे कम है, और देशके बच्चोंकी जीवन-शक्ति पहलेसे कम हो गई है। मुझे यह मत समझाओ कि इसका कारण त्रुटिपूर्ण सरकारी पद्धति है। सरकारी तन्त्रका सबसे अधिक दोषपूर्ण अंग उसकी शिक्षा पद्धति है। मैं मानता हूँ कि अंग्रेजोंने गलत धारणाके आधारपर पूरी ईमानदारीके साथ इसका ढाँचा खड़ा किया था; क्योंकि अंग्रेज शासक पूरी ईमानदारीसे हमारी देशी पद्धतिको बिलकुल रद्दी समझते थे । इस शिक्षा पद्धतिकी प्रवृत्ति भारतीयोंको शरीर, मस्तिष्क और आत्मासे हीनतर बना देनेकी रही है और इसीलिए यह पद्धति पापमय वातावरणमें ही पनपी है।

१. बाल गंगाधर तिलक ( १८५६-१९२०); देशभक्त व राजनीतिज्ञ ।