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अफगानी हमलेका हौआ

लिए आजाद हैं। लेकिन गौरसे देखनेपर पता चलेगा कि समझौता टूट नहीं सकता । समझौतेको तोड़नेका अर्थ भारतके ध्येयको मिट्टीमें मिला देना होगा । हिन्दू और मुसलमान मिलकर संयुक्त रूपसे सशस्त्र विद्रोह करें, ऐसी कोई सम्भावना भी मुझे आज दिखाई नहीं देती। और अकेले मुसलमान सशस्त्र विद्रोहकी किसी भी योजनामें सफलता पानेकी उम्मीद नहीं कर सकते ।

फिर भी मैं पाठकोंसे यही कहूँगा कि वे अफगानी हमलेके हौएमें जरा भी विश्वास न करें । सैनिक मामलोंके अंग्रेज विशेषज्ञोंकी जुबानी हमें अकसर इस रहस्यका पता चलता रहा है कि इस तरहके दंड-अभियान सैनिकोंको फोजी प्रशिक्षण देनेकी गरजसे अथवा निठल्ले बैठे हुए सिपाहियोंको काम-धन्धेमें लगाये रखनेके लिए ही जान- बूझकर रचाये गये थे। कमजोर, निहत्थे, असहाय और भोले-भाले भारतीयोंकी समझमें [ आजतक ] यह बात नहीं आ पाई है कि ब्रिटिश सरकार किस जादूके जोरसे उन्हें दासताके बन्धनमें जकड़े हुए हैं। यहाँतक कि आज हममें से कई आला दिमाग लोग सचमुच इस बातपर यकीन करते हैं कि विदेशी हमलोंसे भारतकी रक्षा करनेके लिए ही फौजपर इतना जबरदस्त खर्च किया जाता है। मेरी रायमें तो सिखों, गोरखों, पठानों और राजपूतोंके प्रति अर्थात् हम लोगोंके प्रति विश्वास न होनेकी वजहसे और हमें जबरदस्ती अपना गुलाम बनाये रखनेकी गरजसे ही फौजपर इतना अनाप-शनाप खर्च किया जाता है। मेरा विश्वास है (अगर यह गलत सिद्ध हो तो गलती जरूर सुधार लूंगा) कि सरकारको अमीरके साथ सन्धिकी इतनी फिक्र रखनेका कारण रूसी हमलेका डर उतना नहीं है जितना कि यह अंदेशा है कि भारतीय सैनिकोंका उसपर विश्वास नहीं रहा है। आजकी हालतमें निश्चय ही रूसी हमलेका कोई भी डर नहीं है। बोल्शेविक खतरेपर तो मैंने कभी विश्वास ही नहीं किया। बंगालके कल तकके लाड़लेके प्रिय शब्दोंमें "जनताके व्यापक प्रेमपर आधारित " सरकारको रूसी, बोल्शे- विक या किसी भी अन्य खतरेसे डरनेकी जरूरत ही क्या है ? भारत सन्तुष्ट और शक्तिशाली रहनेके साथ-साथ यदि इंग्लैंडसे मित्रता भी बनाये रखे तो वह अपने ऊपर किये जानेवाले किसी भी हमलेका कभी भी मुँहतोड़ जवाब दे सकता है। लेकिन इस सरकारने हमें जान-बूझकर पुंसत्वहीन बना दिया है, हमें हमेशा अपने पड़ोसियों और संसार-भरसे डराकर रखा है और हमारे सम्पन्न साधन स्रोतोंका इस कदर दोहन किया है कि हमारा आत्म-विश्वास इस हदतक डिग गया है कि हम न तो अपने- आपको आत्म-रक्षाके लिए और न निरन्तर बढ़ती हुई गरीबी-जैसी सीधी-सी समस्या- का हल करनेके लिए समर्थ मानते हैं। इसलिए मुझे तो पूरी आशा है कि अफगानि- स्तानके अमीर इस सरकारसे कभी किसी तरहकी सन्धि नहीं करेंगे। ऐसी कोई भी सन्धि भारत और इस्लामके खिलाफ एक नापाक सौदेबाजी ही होगी। यह सरकार ‘आपत्कालीन' उपायके रूपमें ओ'डायरशाहीका पल्ला थामे रहनेके लिए, मुसलमानोंके प्रति अविश्वासी बनी रहनेके लिए (इस मामले में भारत सरकार और इंग्लैंडकी शाही सरकारमें कोई भेद करनेको तैयार नहीं), और भारतको उसकी पूरी बुलन्दियोंतक उठनेसे रोके रखनेके लिए अफगानिस्तानसे भारत के खिलाफ हमलावर सन्धि करना चाहती है। मेरे खयालमें तो इस मामलेमें असहयोगियोंकी सिर्फ एक ही राय हो सकती