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भाषण:महराष्ट्र प्रान्तीय सम्मेलन,वसईमें

दे सकता । वे सत्यकी खातिर लड़ते हैं या असत्यकी इतना निश्चय कर लेनेपर वे मेरी आवश्यक सहायता प्राप्त कर सकते हैं। मूलशी पेटाके लोग जब सत्याग्रह करनेके सम्बन्धमें मुझसे सलाह लेने आये थे तब मैंने कहा था कि अगर वहाँके लोगों में इतनी ताकत है तो यह प्रयोग अवश्य आजमाने योग्य है । और उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वे यह ताकत रखते हैं। वे जितना प्राप्त कर सकते हैं उतना अच्छा है, लेकिन पूरी शान्ति तो उन्हें तभी मिल सकती है जब वे सदैवके लिए भयसे मुक्त हो जायें। जो व्यक्ति अपनी जमीन नहीं छोड़ना चाहता, उससे कानून की सहायता से जबरदस्ती जमीन छुड़वाना हमारे देश की सभ्यता नहीं है। मेरे पास एक छोटा-सा मुकदमा था । उस व्यक्तिकी जमीन साधारण थी, लेकिन उसे बचानेकी खातिर वह मेरे पीछे पागलोंकी तरह घूमता था। जैसे पिता अपने बालकको बेचनेको तैयार नहीं होता उसी तरह स्वाभाविक रूपसे व्यक्ति भी अपने पिताकी जमीनसे अलग नहीं होना चाहता । यह हमारा प्राचीन स्वभाव है। मुझे उम्मीद है कि हमारी टाटा कम्पनी मूलशी पेटामें सत्याग्रहियोंके विरुद्ध कुछ भी नहीं करेगी । वह लोगोंको खुश करके भले ही [ जमीन ] मुफ्त ले ले तो कोई बात नहीं है। किन्तु मुझे आशा है कि जबतक एक भी व्यक्ति नाराज हो तबतक वह जमीन लेनेके लिए कोई भी कदम नहीं उठाएगी। भूमि अधिग्रहण अधिनियमके द्वारा जमीन लेना भले ही पाश्चात्य सभ्यता हो, लेकिन जिस सभ्यताको मैं राक्षसी मानता हूँ उससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन जबतक मूलशी पेटाके लोग शान्तिपूर्वक अपना संघर्ष चलाते हैं तबतक सारे देशको उनका साथ देना चाहिए।


मैं मूलशी पेटामें लछमनसिंह और दलीपसिंहके जैसी बहादुरी देखना चाहता हूँ। वे दोनों योद्धा एक अँगुली उठाए बिना ननकाना साहबमें महन्त नारायणदास के प्रहारोंके विरुद्ध अडिग रहकर शहीद हो गये। लछमनसिंह और दलीपसिंहके मित्रों ने उस दिन उन्हें मन्दिरमें जाने से मना किया। [ हालाँकि ] महन्त नारायणदासने उन्हें मारनेकी तैयारियाँ कर रखी थीं। लेकिन उन्होंने उत्तरमें कहा,"हम गुरु ग्रन्थसाहबके आगे शीश झुकायेंगे और इससे बढ़कर हमारा क्या सौभाग्य हो सकता है कि उस स्थिति में हम मृत्युको प्राप्त हों।" उनके ये शब्द अक्षरशः सत्य निकले। लछमनसिंह गुरुद्वारे के अन्दर पहुँच गये थे। जब वे गुरु ग्रन्थसाहबके आगे शीश झुका रहे थे तब उनकी हत्या कर दी गई। दलीपसिंह बाहर रह गये थे । नारायणदास उनको कत्ल करनेके लिए बाहर आया । दलीपसिंहने उससे कहा, तू पागल हो गया है ।" दलीपसिंहके पास कृपाण थी, लेकिन उसे उन्होंने म्यानमें ही रखा। उनका शरीर अन्य सिखोंके समान ही कद्दावर था । वे चाहते तो दो-तीन व्यक्तियोंको तो वहीं खत्म कर सकते थे। लेकिन यह उनके सिद्धान्तके विरुद्ध था। वे कांग्रेसकी 'अहिंसा' की आज्ञासे बँधे हुए थे। वे नारायणदासको समझाते हुए उसके ही हाथों मारे गये । तेतीस करोड़ लोगों में ऐसे दो व्यक्ति ही पर्याप्त नहीं हैं। सिखोंमें ही नहीं वरन् हिन्दुओं और मुसलमानोंमें भी ऐसे ही वीरोंकी जरूरत है। लछमनसिंह और दलीपसिंहकी ताकत कम न थी । लेकिन उन्होंने तलवारसे किसीपर अत्याचार न करनेका निश्चय किया था। मूलशी पेटाके सम्बन्ध में मैं इससे अधिक कुछ नहीं कहूँगा ।