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३७. भेंट: ‘हिन्दू' के प्रतिनिधिसे

बम्बई
शनिवार १७ मई, १९२४

हमारे प्रतिनिधिने पूछा: क्या आप वाइकोमसे आये प्रतिनिधि-मण्डलके साथ हुई अपनी बातचीतके बारेमें कोई वक्तव्य दे सकते हैं?

महात्माजीने धीमे स्वर में बोलते हुए कहा:

मैं समझता हूँ कि हमारी बातचीत लगभग समाप्त हो चुकी है और मुझे यकीन हो गया है कि संगठनकर्त्ताओंने आन्दोलनको व्यवस्थित और अहिंसापूर्ण ढंगसे चलाया है। उन्होंने इस आन्दोलनको जिस दृढ़ता और मुस्तैदीसे चलाया, उससे सारी भारतीय जनताका ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हो गया है। यह सब बेशक हितकर है, लेकिन वाइकोमसे आये अपने मित्रोंसे पूरी तौरपर बातचीत कर लेनेके बाद मेरी अभीतक यही राय बनी हुई है कि सत्याग्रह केवल हिन्दुओं तक सीमित रखा जाना चाहिए और इसमें केरलके या ज्यादासे-ज्यादा मद्रास अहातेके स्वयंसेवकोंको ही भाग लेना चाहिए। सत्याग्रह अपने उग्रतम रूपमें आनेपर गहरा हो जाता है और इसलिए स्वाभाविक है कि तब उसकी व्याप्तिका क्षेत्र बहुत ही सीमित होता है। मैं अपना आशय स्पष्ट कर दूँ। संगठनकर्ता जितने ही शुद्ध होंगे, सत्याग्रह उतना ही अधिक शक्तिशाली और प्रभावशाली होगा। इसलिए संगठनकर्ताओंके द्वारा सत्याग्रहके क्षेत्रके विस्तारका अर्थ वास्तवमें अपनी कमजोरी अर्थात् उद्देश्यकी कमजोरी नहीं; बल्कि सत्याग्रहके लिए संगठित किये गये व्यक्तियोंकी कमजोरीको स्वीकार करना है। केवल हिन्दुओंसे ही सम्बन्धित धार्मिक प्रश्नको लेकर गैर-हिन्दू कदापि सत्याग्रह नहीं कर सकते, इसके बारे में मेरा खयाल है कि मैं ‘यंग इंडिया' के पृष्ठोंमें काफी लिख चुका हूँ। मैं समझता हूँ कि मेरे मित्रोंने मेरी दलीलोंके वजनको समझ लिया है। सत्याग्रहियोंके रूपमें जो ईसाई और मुसलमान सज्जन जेल गये हैं यदि मैं उनको राजी कर सकूँ तो मैं यही चाहूँगा कि वे अधिकारियोंसे कह दें कि उन्होंने गलतीसे सत्याग्रह किया था। इसलिए अगर अधिकारीगण उनको रिहा करना चाहें तो ऐसा किया जा सकता है, क्योंकि वे फिर अछूत हिन्दुओंकी खातिर गिरफ्तार होनेकी कोशिश नहीं करेंगे। मैं ‘अछूत' हिन्दू शब्दका इस्तेमाल जानबूझकर कर रहा हूँ――इसलिए कि मुझे मालूम हुआ है कि मलाबारके सीरियाई ईसाइयोंमें कुछ अछूत ईसाई भी मौजूद है। परन्तु चूंकि वर्तमान सत्याग्रह अछूत ईसाइयोंकी ओरसे नहीं चलाया जा रहा है, इसलिए सर्वश्री जोजेफ सिबैस्तियन और अब्दुर्रहीमके त्यागकी कोई सार्थकता नहीं है।

और जहाँतक सिखोंके लंगरका सम्बन्ध है, वह सिर्फ बेजा ही नहीं, बल्कि मुख्य उद्देश्य और केरलकी जनताके आत्मसम्मानके लिए हानिकारक भी है। उद्देश्यके लिए हानिकारक इसलिए है कि वह स्वयंसेवकोंके त्यागकी शक्तिको कमजोर बनाता है और