पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/११

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भूमिका

प्रस्तुत खण्डमें ८ मई, १९२४ से १४ अगस्त, १९२४ तककी सामग्री संगृहीत है और उससे गांधीजीके उन प्रयत्नोंको समझने में मदद मिलती है जो उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलनको पुनरानुशासित और उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए किये थे। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उनका यह प्रयत्न एक अवधितक सफल नहीं हुआ। मार्च १९२२ से फरवरी १९२४ तक वे जेलमें थे। इस बीच आन्दोलनकी धाराने दूसरा मार्ग पकड़ लिया और ऐसा लगा कि वह असहयोग कार्यक्रमके अपने सिद्धान्तोंसे च्युत हो गया है। कारावाससे छूटने के बाद तीन महीनेतक गांधीजी बम्बईके पास जुहूमें रहे और वहाँ आराम करते हुए उन्होंने तात्कालिक प्रधान समस्याओं अर्थात् कौंसिल- प्रवेश और हिन्दू-मुस्लिम तनावको लेकर प्रमुख नेताओंसे बातचीत की। बातचीतके बाद अपना एक मत निर्धारित कर लेनेके पश्चात् मईके अन्तमें उन्होंने उसे अभिव्यक्ति दी। (देखिए “वक्तव्य: एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडियाको", पृष्ठ ११४-१७ और “हिन्दू-मुस्लिम तनाव: कारण और उपचार", पृष्ठ १३९-५९) इन लेखोंके प्रकाशनके बाद उन्होंने कांग्रेसको अधिकाधिक सुसंगठित और कारगर संस्था बनाने के विचार- से कुछ ठोस सुझाव पेश किये। अपने विचारोंको अभिव्यक्त करते हुए गांधीजीने इस बातकी पूरी कोशिश की कि प्रत्येक पक्षके साथ पूरा-पूरा न्याय हो। किन्तु जिस दृष्टिसे उन्होंने परिपूर्ण स्पष्टताका व्यवहार किया था, उसीके कारण देशके कुछ दलोंमें उसका विरोध होने लगा।

स्वराज्य दलसे गांधीजीका मूलभूत सैद्धान्तिक मतभेद था। उनके जेलमें रहते हुए स्वराज्य दलके प्रमुख नेताओं, श्री मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दासने कौंसिलोंमें प्रवेशके कार्यक्रमको अपना लिया था। यद्यपि दिल्ली और कोकोनाडा कांग्रेसके प्रस्ताव इसकी अनुमति देते थे, तथापि गांधीजीको ऐसा लगा कि उनका यह कार्य उस असहयोग कार्यक्रमके विपरीत है जिसे कांग्रेसने सन् १९२० में प्रमुख कार्यक्रमकी तरह स्वीकार किया था। असहयोगके कार्यक्रमका मंशा रचनात्मक गति-विधि अपनाकर तथा सत्य और अहिंसापर दृढ़ रहकर देशमें एक ऐसी आन्तरिक शक्ति उत्पन्न करनेका था जो अंग्रेजोंको सत्ता हस्तान्तरित करनेपर बाध्य कर दे। और स्वराज्यवादी दलकी अड़ं-नीतिसे सम्बन्धित कार्यक्रमका मंशा केवल इतना ही था कि वे कौंसिलोंमें जाकर सरकारपर दबाव डालें ताकि अन्ततोगत्वा आन्दोलनका लोकमत भारतके पक्षमें हो जाये और उसे स्वराज्य हासिल हो सके। किन्तु गांधीजी ऐसा मानते थे कि कौंसिलोंमें सरकारका विरोध करनेके कारण लोगोंका ध्यान बँटेगा और रचनात्मक कार्यक्रम तथा उसके द्वारा देशमें नवजीवन-संचार करनेके काममें बाधा उत्पन्न होगी। यद्यपि गांधीजी स्वराज्यवादी दलके कार्यक्रमका औचित्य नहीं देखते थे, तथा यथार्थ- वादी होनेके नाते उन्होंने इतना समझ लिया था कि चूंकि कौंसिल-प्रवेश किया ही