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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसपर अनेक टीकाकार कहेंगे कि यह तो समाज-सुधार हुआ राजनीतिक कार्य नहीं। ऐसा कहना मिथ्याभास है। राजनीतिकका अर्थ है राजासे――राज्यसे सम्बन्धित। राजाका अर्थ है प्रजातन्त्रका संचालक। प्रजातन्त्रके संचालकको उपर्युक्त बातोंकी जाँच करनी ही होती है। जो नहीं करता वह शासक नहीं है, राजा नहीं है और जिस संस्थामें इसकी अवहेलना की जाती है अथवा इसे गौण स्थान दिया जाता है वह संस्था राजनीतिक संस्था नहीं है। राजनीतिक परिषद्का उद्देश्य राजाकी मदद करना अथवा यदि वह अपने मार्गका त्याग करे तो उसपर अंकुश रखना है। वही मनुष्य ऐसी मदद दे सकता है अथवा ऐसा अंकुश रख सकता है जिसका जनतापर लगभग उतना ही प्रभाव हो जितना राजापर हो। जनतामें ऐसा प्रभाव केवल वही रख सकता है जो जनताकी शुद्ध सेवा करता है। ऐसी सेवा उपर्युक्त कार्योंके द्वारा ही की जा सकती है। इसलिए यदि राजनीतिक परिषदें सचमुच राजनीतिक कार्य करना चाहती हैं तो उपर्युक्त सेवा उसकी प्राथमिक शिक्षा ही है, अतः वह अनिवार्य है।

इसीलिए यह सेवा सत्याग्रहकी सर्वोत्तम और आवश्यक तालीम है। जिन लोगोंने इतना नहीं किया है वे जनताके हितमें सत्याग्रह करनेका अधिकार नहीं रखते और जनता भी उनके इस प्रयत्नकी सराहना नहीं करेगी। यह सेवा किये बिना तो हम सेवक अथवा सत्याग्रहीके रूपमें दुःसाहसी व्यक्ति ही ठहरेंगे।

कुछ लोग कहते है। “लेकिन ऐसे कठिन कार्यको हम कबतक पूरा कर सकेंगे? और राजा कब सुधरेंगे? आप अपने जाम साहबको ही देखिए। आप तो अभिमान सहित कहते थे। ‘जाम साहब जब रणजीतसिंहजी कहे जाते थे, तब मैं उनसे मिला था? हम दोनों थोड़े समय तक सहपाठी रहे है और हम कभी-कभी परस्पर मिला करते थे। उस समय उनमें बहुत ज्यादा सादापन तथा प्रजाके प्रति गहरा प्रेमभाव था।’ लेकिन आज वह सब-कुछ नहीं है। आज तो जाम साहबकी प्रजा जितनी कष्टमें है उतनी अन्य किसी राजाकी प्रजा शायद ही होगी। उनकी राजनीतिमें सुधार करना और प्रजामें चरखेका प्रसार करना, इन दोनों बातोंमें परस्पर क्या सम्बन्ध है? हमें तो लगता है कि आप जेलसे ऊब गये हैं, आप फिर जेल नहीं जाना चाहते; इसलिए आप अपनी निर्बलताको ढाँककर और हमें भी टेढ़े मार्गपर ले जाकर निर्बल बनाना चाहते हैं।" ऐसे विचार किसी एक ही व्यक्तिके नहीं। एक मित्रने विनोदमें मुझसे मेरी “निर्बलता" की बात कही थी। मैंने ऐसी सब बातोंको मिलाकर ही उपर्युक्त आरोप तैयार किया है।

जाम साहबके विरुद्ध मैंने बहुत-कुछ सुना है। कुछ मित्रोंने प्रमाणस्वरूप दो वर्ष पहले मुझे पत्र भी भेजे थे। लेकिन मैंने अन्य कार्योंमें व्यस्त होने तथा काठियावाड़के राजतन्त्रमें सुधार करना मेरे कार्यक्षेत्रसे बाहर होनेके कारण इस सम्बन्धमें न कुछ किया और न कुछ लिखा। मैं आज भी इस कार्यमें नहीं पड़ना चाहता। मेरी मान्यता है कि यदि जनता स्वराज्यकी प्रवृत्तिकी शान्तिपूर्ण गतिविधियोंसे सफलता प्राप्त कर लेगी तो देशी राज्यतन्त्रों में जहाँ कोई कमी है, वहाँ वह अपने आप ही दूर हो जायेगी। लेकिन यदि मैं काठियावाड़के राज्योंके मामलोंमें हस्तक्षेप करनेके लिए तैयार हो जाऊँ तो भी मैं अपनी राय एकपक्षीय टीकाओंपर कदापि कायम