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काठियावाड़ क्या करे?


नहीं करूँगा। इसके अतिरिक्त मैं पहले तो थोड़ी अथवा ज्यादा जान-पहचान होनेके कारण जाम साहबसे मिलने और सब शिकायतें उनके सामने रखनेका प्रयत्न करूँगा। इसके बाद भी यदि मुझे यह लगेगा कि अन्याय हो रहा है और जाम साहबकी वृत्ति उसे दूर करने की नहीं है तो मैं सार्वजनिक रूपसे उनकी आलोचना करूँगा। मैंने चम्पारनके निलहे मालिकोंके सम्बन्धमें इसी पद्धतिका उपयोग किया था। मैं काठियावाड़के राजाओंके प्रति इससे कम तो कर ही नहीं सकता। मैंने ऊपर जो-कुछ कहा है, यदि जाम साहब उसे देख लें तो मेरी उनसे विनती है कि वे यह न समझें कि मैं उनके राज्यतन्त्रपर कोई आक्षेप करना चाहता हूँ। मैंने तो उनके राज्यतन्त्रका उदाहरण केवल दृष्टान्त रूपमें ही लिया है। लेकिन इसमें सन्देह नहीं है कि उनकी प्रजाकी तो ऐसी ही फरियाद है।

अब हम फिर मूल बातपर आते हैं। मेरे कहनेका अभिप्राय यह है कि मैंने ऊपर जिन सेवाओंकी चर्चा की है उनका जाम साहबके राज्यतन्त्रमें जो दोष मिलते हैं, उनसे निकटका सम्बन्ध है। जिन्होंने ऐसी सेवा की होगी उसकी बात राजा और प्रजा दोनों ही सुनेंगे। सत्याग्रही बलवान होता ही है; उसमें भीरुता रंच-मात्र भी नहीं होती। लेकिन उसकी विनम्रता भी निर्भीकताके अनुपातसे ही बढ़नी चाहिए। अविनयीकी निर्भयता उसे गर्वित और उद्दण्ड बना देती है। गर्व और सत्याग्रहके बीच तो समुद्र लहराता है। विवेकीकी बात महाभिमानी राजाको भी सुननी पड़ती है। सेवाके बिना नम्रता और विनय आ ही नहीं सकती। सत्याग्रहीको स्थानीय स्थितियों का अनुभव भी होना चाहिए किन्तु वह भी सेवाके बिना नहीं होता। राजाओंकी टीका करना अनुभवकी श्रेणीमें नहीं गिना जा सकता। काठियावाड़ी कार्यकर्ताओंमें अनेक चतुर राजनीतिज्ञोंके वर्गके होते हैं। उनकी राजनीतिज्ञताका सेवासे बहुत कम सम्बन्ध है। राजनीतिज्ञोंके वर्गका अर्थ है शासकवर्ग। मुझे अपने बचपनका यह निजी अनुभव है कि जनता इस वर्गके प्रति अपना हृदय नहीं खोल पाती। इसलिए यदि काठियावाड़ी सेवा करना चाहें तो वे राजनीतिज्ञ न बनकर भंगी, किसान, बुनकर, कुम्हार, बढ़ई आदि बनें और उसमें अपने अक्षरज्ञान और राजनीतिके अनुभवका सम्मिश्रण करें। यदि इस सम्मिश्रणमें सत्य और अहिंसा मिल जायें तो इस त्रिपुटीमें से जो शक्ति पैदा होगी उसका मुकाबला कोई भी राजशक्ति नहीं कर सकती

[गुजरातीसे]

नवजीवन, १८-५-१९२४

१. १९१७ में देखिए खण्ड १४।