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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऐसी है जो किसी भी मौलिक और मान्य बौद्ध ग्रन्थ में नहीं मिलती । मैं आशा करता हूँ कि हमारे विद्वान आचार्य कौसाम्बी अपने परिपक्व ज्ञानके परिणामस्वरूप भविष्यमें कभी बुद्धकी जीवन-कथा साधारण भारतीय पाठकके हितार्थ साधिकार रूपमें प्रस्तुत करेंगे।

फिलहाल तो बौद्ध-धर्मके विषयमें मेरी जो मान्यताएँ हैं, मैं श्रोताओंके सम्मुख उन्हींको रखूँगा।

मैं तो बौद्ध मतको हिन्दूधर्मका ही अंग मानता हूँ। बुद्धने संसारको कोई नया धर्म नहीं दिया। इन्होंने संसारको धर्मकी एक नई व्याख्या दी। उन्होंने हिन्दू धर्मको जीवनकी बलि लेने के बजाय जीवनकी बलि देना सिखाया। अन्य जीवोंकी बलि देना सच्चा बलिदान नहीं, अपनी बलि देना सच्चा बलिदान करना है। वेदोंपर कोई भी प्रहार हिन्दू धर्मको बर्दाश्त नहीं है। उसने इस नई व्याख्याको प्रहार ही माना और इसलिए बुद्धकी शिक्षाका मूल तत्व स्वीकार करके भी बौद्ध धर्मको एक नया और वेद-विरोधी मत कहा तथा इसका विरोध किया।

हिन्दू धर्मको बुद्धको देन

कुछ लोगोंमें यह कहनेका फैशन-सा चल पड़ा है कि भारतने जिस दिन बुद्धके उपदेशोंको स्वीकार किया, उसी दिनसे भारतका पतन शुरू हुआ। यह तो दूसरे शब्दोंमें यही हुआ कि यदि संसार प्रेम और करुणापर काफी अमल करने लगे तो उसका पतन हो जायेगा। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि आलोचकोंके मतसे अन्तमें तो बुराईकी ही जीत होती है। पर मेरा अडिग विश्वास है कि भारतका पतन इसलिए नहीं हुआ है कि उसने उनकी शिक्षा स्वीकार कर ली बल्कि इसलिए हुआ कि उसने गौतमके उपदेशोंके अनुसार आचरण नहीं किया। पुजारियोंने सदाकी तरह अपने पैगम्बरको सूलीपर लटका दिया। वेदवाक्य ईश्वरीय वचन तभी हो सकता है जब वह जीवन्त हो, सदा विकासशील बना रहे और सभी परिस्थितियोंमें मार्ग-दर्शन करता, फूलता-फलता चले। पुजारीगण सिर्फ वाक्यों और शब्दोंसे चिपके रहे, उन्होंने उसकी आत्मा, उसके मर्मको नहीं समझा। लेकिन निराश होनेकी जरूरत नहीं है। बुद्धने धर्मशोधनका जो प्रयास किया था, अभीतक उसपर ठीक-ठीक अमल करके देखा ही नहीं गया। संसारके इतिहासमें ढाई हजार वर्षका काल कोई बड़ा काल नहीं माना जा सकता। यदि पिण्ड विकासकी प्रक्रियामें कई कल्प लग सकते है तो फिर विचार और आचरणके विकासके क्षेत्रमें हम किसी चमत्कारकी आशा क्यों करें? और चमत्कारोंका युग तो अभी समाप्त नहीं हुआ। व्यक्तियोंके बारे में जो बात सही है वही राष्ट्रोंके बारेमें भी सही है। मैं यह बिल्कुल सम्भव मानता हूँ कि जनसाधारण एकाएक किसी सन्मार्गको स्वीकार कर ले, एकाएक उसका जीवन और विचार उन्नत हो जाये और फिर जिसे हम आकस्मिकता कहते हैं, वह सिर्फ देखने-भरकी आकस्मिकता होती है क्योंकि कौन जानता है कि शिक्षाका खमीर भीतर ही भीतर कितना असर कर चुका है? प्रबलतम शक्तियाँ तो अदृश्य ही रहती हैं, यहाँ-तक कि दीर्घ कालतक उनकी अनुभति भी नहीं होती। लेकिन फिर भी वे अपनी