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जेलके अनुभव-६


जाये, तभी सत्याग्रहीका उपवास करना उचित माना जा सकता है। इस प्रकार फिर कैदीके आचरणपर विचार करते हुए मैं कहता हूँ कि यदि मेरी धार्मिक स्वतन्त्रता छीन ली जाये या मेरे साथ साधारण इन्सानकी तरह भी बरताव न किया जाये――उदाहरणके लिए मेरी खुराक मुझे ठीक ढंगसे देने के बजाय मेरी तरफ फेंक दी जाये――तो ऐसी हालतमें वह खुराक लेना और जीना मेरे लिए लज्जाकी बात होगी। कहनेकी जरूरत नहीं कि यह धार्मिक आपत्ति सच्चे अर्थोंमें धार्मिक आपत्ति होनी चाहिए और अपने प्रति की जानेवाली अशिष्टताका स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि वह किसी भी कैदीको साफ तौरपर खटके। यह सावधानी जरूरी है, क्योंकि अक्सर यह धार्मिक आवश्यकता केवल बहाना होती है और उसके पीछे अधिकारियोंको तंग करनेका मंशा होता है। इसी प्रकार बहुधा जहाँ अशिष्टतासे पेश आनेका कोई इरादा नहीं रहता वहाँ भी लोग मान बैठते हैं कि उनके साथ अशिष्टता बरती गई है। तो यदि मैं जेलके नियमके अनुसार निषिद्ध चिट्ठी-पत्री आदिको छिपाकर रखनेके लिए धर्म-पुस्तकके बहाने ‘भगवद्गीता' को अपने पास रखने अथवा प्राप्त करनेका आग्रह करूँ तो यह मुझे शोभा नहीं देगा। इसी प्रकार जरूरी तौरपर प्रत्येक कैदीकी जो तलाशी ली जाती है, उसे अशिष्टता मानकर उसपर रोष करना ठीक नहीं है। सत्याग्रहमें पाखण्डके लिए कोई गुंजाइश नहीं है। किन्तु समझ लीजिए कि उक्त उपवासके अवसरपर यदि सरकार सिर्फ भूख हड़तालियोंका दृष्टिकोण समझने और उनकी भूल हो तो उन्हें उससे विरत करनेके लिए मुझे उनसे मिलनेका मौका नहीं देती तो उस हालतमें उपवास करना मेरा कर्तव्य हो जाता। यह जानते हुए कि यदि जेल अधिकारी मानवीयताके साधारण नियमोंको स्वीकार करें तो भूखसे मरते हुए लोगोंको बचाया जा सकता है और तिसपर भी वे कुछ नहीं करते तो फिर मुझे जिन्दा रहनेके लिए भोजन करना किस तरह सहन हो सकता है।

कुछ मित्र कहते हैं: “ऐसा सूक्ष्म भेद करने की जरूरत ही क्या है? हम बाहरके अधिकारियोंकी तरह ही जेलके अधिकारियोंको भी परेशान क्यों न करें? आपने जेल अधिकारियोंके साथ जैसा सहयोग किया वैसा हम क्यों करें? क्यों नहीं हम यहाँ भी अहिंसात्मक प्रतिरोध जारी रखें? हमारी अपनी सुविधाके लिए जो नियम हों उनके सिवा अन्य किसी भी नियमका पालन हम किसलिए करें? जेल-शासनको ठप कर देनेका क्या हमें पूरा हक नहीं है? क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं है? बल-प्रयोग किये बिना यदि हम अधिकारियोंकी नाकमें दम कर दें तो सरकारके लिए लोगोंको बड़ी संख्यामें गिरफ्तार करना कठिन हो जायेगा और उसे सुलहकी बातचीत शुरू करनी पड़ेगी।" यह तर्क बड़ी गम्भीरताके साथ पेश किया गया है, इसलिए अगले प्रकरणमें हम इसपर विचार करेंगे।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, २२-५-१९२४