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५३. विदेशी कपड़ेका बहिष्कार करो

पिछले सप्ताह मैंने यह दिखानेकी कोशिश की थी कि साम्राज्यके मालका बहिष्कार करनेसे कुछ बननेवाला नहीं है। मैं तो कहूँगा कि यह निष्प्रयोजन ही नहीं, हानिकर भी है; क्योंकि इसके कारण देशका ध्यान उस बहिष्कारकी ओरसे हट जाता है जो एकमात्र प्रभावकारी है और अनिवार्य बहिष्कार भी है। मैं एकबार नहीं, अनेक बार कह चुका हूँ कि यदि हम अपने मनसे अहिंसाकी बात हटा दें तो जो लोग राजनीतिके क्षेत्रमें मेरी तरह अहिंसाको उद्देश्य-प्राप्तिका एकमात्र साधन नहीं मानते और यदि उन्हें यह विश्वास हो गया है कि अहिंसात्मक उपाय विफल हो चुके है तो दूसरे उपायोंको अधिक कारगर पाकर उनका उनसे काम लेना न केवल उचित बल्कि कर्तव्य-रूप होगा। परन्तु अभी तो मुझे इतना ही कहना है कि साम्राज्यके मालका बहिष्कार किसी भी हालतमें तबतक व्यावहारिक नहीं है, जबतक वर्तमान शासन प्रणालीका अस्तित्व कायम है। जहाँतक मेरी नजर पहुँचती है, अहिंसा तथा अहिंसासे जो वस्तु अभिप्रेत है उसका एकमात्र विकल्प सशस्त्र विद्रोह है। यदि हम उसकी तैयारी करना चाहते हों तो हमारे राष्ट्रीय कार्यक्रममें साम्राज्यके मालके बहिष्कारका स्थान केवल उचित ही नहीं, अनिवार्य है। इस बहिष्कार अभियानको जारी रखने और इसके पक्षमें प्रबल प्रचार करनेका परिणाम यह होगा कि हमें ज्यों-ज्यों अपनी बेबसीका एहसास होगा, हमारा क्रोध बढ़ेगा। इसलिए ऐसे प्रचारका स्वाभाविक फल चारों ओर अनुशासनहीन हिंसाकाण्डके रूपमें प्रकट हुए बिना नहीं रहेगा। उस अवस्थामें उसका कुचल दिया जाना हमारे लिए विशेष हानिकर प्रसंग नहीं होगा। तब भी उसे सशस्त्र बगावतके लिए एक किस्मकी तालीम माना जायेगा। हर दमनके साथ बहुतसे लोगोंमें पस्ती जरूर आ जायेगी, लेकिन कुछ लोगोंमें अधिक संकल्प और दृढ़ता भी आयेगी और उन थोड़ेसे कृतसंकल्प लोगोंकी टोलीसे, सम्भव है, विलियम द सायलेंटकी[१]सेनाकी तरह एक सेना उत्पन्न हो जाये। यदि राष्ट्रके कार्यकर्ता इस निष्कर्षपर पहुँच चुके हों कि भारत नये इतिहासकी रचना नहीं कर सकता; बल्कि उसे उसी रास्तेपर चलना पड़ेगा जिसपर यूरोपके देश चले हैं; तब मैं साम्राज्यीय मालके उनके बहिष्कार-अभियानकी उपयोगिताको तसलीम कर लूँगा। बहिष्कार-आन्दोलन भले ही कभी सफल न हो, किन्तु उसे एक आदर्शके रूपमें जारी रखना होगा; क्योंकि तब वह शक्ति और उत्साह रूपी वाष्प पैदा करनेवाले कारखानोंमें से एक गिना जायेगा। भारत चाहे तो उसे इस परम्परागत साधनको ग्रहण करनेका अधिकार है और दुनियाकी कोई ताकत उससे यह अधिकार छीन नहीं सकती।

  1. प्रथम विलियम (१५३३-८४); डच गणतन्त्रका संस्थापक प्रोटेस्टेंटोंपर फिलिप द्वितीयके अत्याचारका विरोध किया और स्पेनको सेनाके खिलाफ “स्वातन्त्र्य युद्ध" छेड़ा और इस तरह हॉलैंडके कई प्रान्तोंको स्वतन्त्र करवाया।