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आठ

और विद्यार्थियोंके सामने भाषण देते हुए उन्होंने अनेक बार उनसे आग्रह किया कि वे अपना अधिकाधिक समय खादी-कार्यमें लगायें और यह भी सुझाया कि राष्ट्रीय स्कूलोंमें खादी अनिवार्य रूपसे दाखिल की जानी चाहिए। अहमदाबादकी राष्ट्रीय शालाके एक समारोहमें गांधीजीने राष्ट्रीय शिक्षा और उसके शिक्षकोंके कर्तव्यके बारेमें अपने विचार विशद रूपसे सामने रखे।

इस कालावधिमें हिन्दू-मुस्लिम तनावकी बातको लेकर गांधीजीके मनपर बड़ा बोझ रहा। सन् १९२१ में जब असहयोग आन्दोलन पूरे जोरपर था, ऐसा जान पड़ता था, मानो दोनों सम्प्रदायोंमें एकता बहुत जल्दी स्थापित हो जायेगी। किन्तु खलीफासे गद्दी छीन लिये जानेके बाद खिलाफत आन्दोलन ठंडा पड़ गया और उसके बाद गांधीजीके दो वर्षतक कारावासमें रहनेके बाद दोनों सम्प्रदायोंके बीच मनो-मालिन्य उत्पन्न हो गया। देशके अनेक भागोंमें दंगे भी हो गये। गांधीजीने “हिन्दू-मुस्लिम तनावः कारण और उपचार” (पृष्ठ १३९-५९) नामक लेखमें इस प्रश्नका विश्लेषण किया है। जैसा कि उन्होंने कहा, स्थान-स्थानपर हुए दंगोंके पीछे स्थानीय परिस्थितियोंके अलावा देशमें हिंसाकी बढ़ती हुई मनोवृत्ति भी एक प्रबल कारण थी और यह मनोवृत्ति पैदा हुई थी असहयोग आन्दोलनके जमानेमें अहिंसाकी नीतिको अन्यमनस्क भावसे स्वीकार करने के कारण। जिन नेताओंके मनमें साम्प्रदायिकताकी भावनाएँ अधिक थीं और अहिंसाके सिद्धान्तके प्रति पूरी निष्ठा नहीं थी, दोनों ही पक्षोंके ऐसे नेतागण सोचने लगे कि विश्वास और सहिष्णुतासे उनके सम्प्रदायको कोई लाभ नहीं होगा; लाभ होगा तो केवल अपनी शक्तिके बलपर। ५-६-१९२४ के ‘यंग इंडिया' में उन्होंने “भारतीय देशभक्तों के सामने मौजूद सवालोंमें सबसे जबरदस्त” (पृष्ठ १९२) प्रश्नके विषयमें अपने विचार संक्षेपमें रखे। गांधीजीने दोनों ही पक्षोंसे सत्यको पहचानने के लिए कहा और इस कारण दोनों ही दल उनसे नाराज हुए। गांधीजीने चाहा कि यदि स्वास्थ्य साथ दे तो वे दोनों सम्प्रदायोंमें एकता स्थापित करने के विचारसे सारे देशका दौरा करें, किन्तु यह सम्भव नहीं हो सका। इस तरह जब उन्होंने देखा कि वे तत्कालीन वातावरणको सुधारने में असमर्थ हैं तो उन्होंने दिल्लीमें आत्मशुद्धिके विचारसे २१ दिनका उपवास किया।

त्रावणकोर रियासतके वाइकोम नामक स्थानमें किया गया सत्याग्रह यद्यपि एक स्थानीय समस्याको लेकर ही किया गया था, फिर भी गांधीजीने इसपर पर्याप्त ध्यान दिया। वहाँ मन्दिरको जानेवाली सार्वजनिक सड़कपर अछूतोंको चलनेका अधिकार नहीं था, इसे लेकर सुधारकोंने एक आन्दोलन शुरू कर दिया था। सत्याग्रहका मंशा गांधीजीके विचारोंके सर्वथा अनुकूल था, इसलिए उन्होंने उसे अपना नैतिक समर्थन दिया और दूर बैठकर ही सही, वे उसका मार्गदर्शन करते रहे। वे यह अवश्य चाहते थे कि उक्त सत्याग्रहका स्थानीय रूप बना रहे और केवल हिन्दू ही उसमें भाग लें। वे यह भी चाहते थे कि सत्याग्रहके आधारभूत सिद्धान्तोंका सख्तीसे पालन किया जाये, अर्थात् विरोधियोंके हृदय-परिवर्तनके लिए स्वयं कष्ट-सहनको स्वेच्छापूर्वक अपनाया जाये। उन्हें एकाध बार ऐसा भी लगा कि इस नज़रियेसे देखनेपर वाइकोमका