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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
ऐसा भी है, जो इस मामलेमें परम्परापर दृढ़ रहनेका आग्रह रखता है। यह ठीक है कि वे चाहते हैं कि उनके मन्दिर सामान्य हिन्दू-मन्दिरोंसे अलग माने जायें और उनके अपने नियन्त्रणमें रहें। किन्तु यह हाल तो सभी हिन्दू पन्थोंका है। जहाँतक मुझे मालूम है, जैनोंको भी यह अधिकार प्राप्त है। मेरा ध्यान इस बातकी ओर खींचा गया है कि आर्य समाजी, ब्रह्म समाजी तथा दूसरे पन्थ जो परम्परागत सनातन हिन्दू धर्मके अनुयायी नहीं हैं, जिस बातका दावा करते हैं, सिख उसी बातका दावा करते हैं, उससे अधिकका बिलकुल नहीं। यहाँके सिख नेताओंसे घनिष्ठ परिचय होने और सिख आन्दोलनका थोड़ा बहुत अध्ययन करनेके बाद, मुझे स्वयं लगता है कि अकालियोंको गैर-हिन्दुओंकी श्रेणीमें रखना, उनके प्रति अन्याय करना है।

मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि मेरे सिख भाइयोंको गैर-हिन्दुओंकी श्रेणीमें रखे जानेकी बात पसन्द नहीं है। मैं उन्हें विश्वास दिलाता हूँ कि उन्हें नाराज करनेका मेरा कोई इरादा नहीं था। मैंने अपने पंजाबके पहले दौर में सिखोंके बारेमें बोलते हुए कहा था कि सिख मेरी रायमें हिन्दू समाजके अंग हैं। मने ऐसा इसलिए कहा था कि मैं जानता था कि लाखों हिन्दू गुरु नानकमें विश्वास करते हैं और ‘ग्रन्थसाहब' हिन्दू-भावना और हिन्दू पौराणिक कथाओंसे परिपूर्ण है। किन्तु बैठकमें मौजूद एक सिख मित्रने मुझे एक ओर ले जाकर बहुत चिन्तित भावसे कहा, आपने सिखोंको हिन्दू समाजका अंग बताया, इससे सिखोंमें नाराजी पैदा हुई है। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं आगे कभी सिखों और हिन्दुओंको एक न बताऊँ। मैंने अपने पंजाबके दौरेमें देखा कि उनकी दी हुई चेतावनी ठीक ही थी; मैंने देखा कि कई सिख अपनेको हिन्दू धर्मसे एक अलग धर्मका अनुयायी मानते हैं। मैंने उन मित्रको वचन दिया कि मैं आगे कभी सिखोंको हिन्दू नहीं कहूँगा। अतः यह जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता होती है कि अलगावकी यह भावना बहुत थोड़े सिखोंतक ही सीमित है और अधिकांश सिख अपने आपको हिन्दू मानते हैं। आर्य समाजियोंका भी मुझे ऐसा ही अनुभव हुआ। मैंने एक बार यों ही सहज भावसे उनको हिन्दू समाजका ही एक अंग कह दिया था। इसका उन्होंने बुरा माना था। मैंने एक आर्य समाजी सज्जनको उनकी भावनाओंको आघात पहुँचानेकी लेशमात्र भी इच्छा न रखते हुए हिन्दू कह दिया तो उन्होंने इसे अपना अपमान माना। तब मैंने उन्हें तुरन्त ही क्षमा माँग कर शान्त किया। मुझे कुछ जैनोंका अनुभव भी ऐसा ही हुआ है। महाराष्ट्रके दौरेके वक्त कई जैनोंने मुझसे कहा कि उनका समाज हिन्दू समाजसे अलग है। जैनोंकी यह आपत्ति मेरी समझमें कभी नहीं आई क्योंकि, जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्मोमें बहुत अधिक समान तत्त्व हैं। आर्य समाजियोंकी आपत्ति थोड़ी-बहुत समझ सकता हूँ, क्योंकि यदि उन्हें बिना अप्रसन्न किये ऐसा कहा जा सके तो ठीक है, क्योंकि वे मूर्ति-पूजाके कट्टर विरोधी हैं और ‘वेदों' तथा ‘उपनिषदों'को छोड़कर पुराण आदि ग्रन्थोंको नहीं मानते। किन्तु जहाँतक मैं जानता हूँ, जैन धर्म और बौद्ध धर्मका हिन्दू धर्मसे ऐसा कोई विरोध नहीं है। इसमें शक नहीं कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म हिन्दू धर्ममें