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ही किये गये जबर्दस्त सुधारोंके सूचक है। बौद्ध धर्ममें आन्तरिक शुचिताका आग्रह है, जो उचित है। उसकी बात लोगोंके हृदयपर सीधा असर कर गई। उसने दर्पपूर्ण श्रेष्ठताकी मिथ्या कल्पनाकी धज्जियाँ उड़ा दीं। जैन धर्ममें तर्कका उच्चतम स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। उसने किसी भी मान्यताको स्वयंसिद्ध नहीं माना और आत्मज्ञान सम्बन्धी सत्यको बुद्धि द्वारा ग्रहण और सिद्ध करनेका प्रयास किया। इन दो सुधार आन्दोलनोंने साहित्यके जिस विशाल भण्डारको जन्म दिया, मेरी रायमें, हमने अभी उसे समझने की कोशिश तक नहीं की है।

आशा है कि मेरे सिख मित्र इसे उचित ही ठहरायेंगे कि अगर मैंने अपने विचारोंके बावजूद उन्हें गैर-हिन्दुओंकी श्रेणीमें रखा है तो ऐसा उनकी भावनाओंको किसी भी तरहकी चोट न पहुँचने देने के खयालसे और अपनी रुचिके विरुद्ध ही किया है। जहाँतक सिख-लंगरका सवाल है, वह एक खतरेकी चीज है, फिर चाहे सिख हिन्दू माने जायें, चाहे गैर-हिन्दू। बाहरके लोगोंकी यह अनधिकार चेष्टा मैं―― इसे और कुछ कह ही नहीं सकता――महाराजाकी सनातनी भावना अथवा उनकी कठिनाईका कोई विचार ही नहीं करती। मुझे सिख-लंगरसे सम्बन्धित तथ्य और भी अच्छी तरह मालूम हो गये हैं; इसलिए मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि इससे केरलके लोगोंके आत्मसम्मानको क्षति पहुँचती है। वे कोई भूखों नहीं मर रहे हैं। यदि मैं स्वयंसेवक होता तो हिन्दू अथवा गैर-हिन्दू, किसीके भी दानका भोजन ग्रहण करने के बजाय, भूखा रहना ज्यादा पसन्द करता। केरलके लोगोंपर इतना भरोसा किया ही जाना चाहिए कि वे अपने स्वयंसेवकोंके भोजनकी व्यवस्था करेंगे।

सद्गुणको सजा

दुकान न चलाने, दुकानके लिए ताड़ोंसे रस न निकालने और इससे ताड़ी न बनाने के सम्बन्धमें ठेकेदारको कैफियत सन्तोषजनक नहीं है। उसपर ५० रुपया जुर्माना किया जाता है।

मद्रास अहातेके अन्तर्गत नमकल क्षेत्रके राजस्व अधिकारीने अपने फैसलेके दौरान ऐसा लिखा है। पाठक जानते हैं कि यह दुकान शराबकी है। ठेकेदारने यह कैफियत दी थी कि शराब पीनेवालोंने शराब न पीनेका निश्चय किया है, इसलिए उसे दुकान खुली रखने में कोई फायदा दिखाई नहीं दिया। किन्तु वह दुकानका किराया देनेंके लिए तैयार था। उसकी यह कैफियत सन्तोषजनक नहीं मानी गई। शराब-पीना छोड़नेवाले ग्रामीण, मदिरा-त्यागके अपने इस नये सद्गुणका शौक पूरा करनेके लिए शराबके व्यापारसे होनेवाला साल-भरका करारशुदा नफा सरकारको देनेके लिए तैयार थे, किन्तु यह भी काफी नहीं था। यह भी नहीं हो सकता था क्योंकि कानून लोगोंके खिलाफ था। यदि कानूनकी दृष्टिसे पूरी कार्रवाईकी जाँच की जाये तो शायद यही निष्कर्ष निकलेगा कि सम्बद्ध अधिकारी अन्य कोई फैसला दे ही नहीं सकते। दोष उनका नहीं है। वास्तव में यह पद्धति ही दूषित है, क्योंकि इस पद्धतिमें मुख्य ध्येय राजस्व प्राप्त करना है, उसका आत्मा अथवा शरीरके स्वास्थ्यसे कोई सरोकार नहीं। यदि बात अन्यथा होती तो शराब और अफीमका व्यापार कबका समाप्त हो गया होता।